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________________ ११६ । सदा परम दुल्लहा माता-पिता और पुत्र अथवा पति-पत्नी दूर-दूर रहते हों और बहुत दिनों बाद जब मिलते हैं तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रहती; इसी प्रकार साधारण आत्मा परमात्मा को विस्मृत कर देता है, या उनकी उपासना नहीं करता तो उनसे काफी दूर होकर बिछुड़ जाता है, परन्तु जब उस पर विपत्ति, संकट और कष्ट आते हैं, तो वह पुनः परमात्मा को याद करता है, उनसे मिलने को आतुर होता है, तब उसके मन में कितने आनन्द की अनुभूति होती है। उपासना से आत्मा-परमात्मा की एकता एक बात स्पष्ट है कि मनुष्य और परमात्मा-महात्मा की एकता से आनन्द का अनुभव तभी हो सकता है, जब, व्यक्ति पृथक्तावादी, संकीर्ण और स्वार्थपरायण न हो। जब 'अप्पसमं मनिश्र छप्पिकाए' अर्थात् 'षट्कायिक जीवों को आत्मतुल्य मानें इस सूवाक्य के अनुसार सब जीवों में अपना आत्मा दिखाई दे, दूसरे लोग भी आत्मीय, स्वजन सम्बन्धी एवं परमात्मा के पुत्र-पुत्री, अपने भाई-बहन के समान अथवा प्रभु के प्रतिनिधि प्रतीत हों, तब समझना चाहिए कि वह परमात्मा का सच्चा उपासक है और वह कोई दुष्कर्म नहीं कर सकता । सच्चा उपासक मांसाहार, ठगी, हत्या, बेईमानी, धोखेबाजी, व्यभिचार, संकीर्ण स्वार्थपरता आदि पापकर्मों से दूर ही रहेगा । आनन्द, कामदेव आदि गृहस्थ जब श्रमणोपासक बने तो उन्होंने सर्वप्रथम सम्यग्दृष्टि प्राप्त की, तत्पश्चात् अहिंसा-सत्य आदि अणुव्रतों को अंगीकार किया। ___ आत्मा और परमात्मा महात्मा की एकता के लिए जहाँ पूर्वोक्त साधना और भावना के साथ उपासना का अवलम्बन करना आवश्यक है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि उसके जीवन की गतिविधियाँ पृथक्तावादी न हों ? वे कंजस और लोभी की तरह केवल अपनी ही बात सोचने वाले न हों, कई तथाकथित आत्मार्थी (स्वार्थी) सज्जन भी इसी श्रेणी में जा बैठते हैं । वे लोग आहार-वस्त्रादि साधन, आवासस्थान तथा अन्य सुविधाएँ समाज, विश्व एवं राष्ट्र से लेते हैं, परन्तु बदले में समाज, राष्ट्र एवं विश्व. को नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेरणा, उद्दश्य या सन्देश देने के लिए साफ इन्कार कर जाते हैं; संसार समाज या राष्ट्र से हमें क्या लेना-देना ? इस प्रकार की भाषा अपना लेते हैं। ऐसे लोग न तो समाज और राष्ट्र से निलिप्त निरपेक्ष और निःस्पृह बनकर जी सकते हैं, और न ही स्थानांगसूत्र में वणित पाँच स्थानों के उपकार से भी उऋण हो सकते हैं। भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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