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________________ ११२ | सद्धा परम दुल्लहा व्यथित, हताश या निराश होना पड़े। यह मिलन प्रक्रिया उपासना के माध्यम से अतीव सरल हो जाती। उपास्य के प्रवेश के लिए अन्तःकरण के कपाट खोल दो उपासना का उपक्रम भी इसीलिए है कि परमात्मा अन्तःकरण में विराजमान हो भीतर प्रवेश करें। परन्तु अधिकांश व्यक्तियों ने अन्तःकरण के कपाट बन्द कर रखे हैं। कितनी कामनाओं तृष्णाओं, एवं लालसाओं, द्वेष दम्भ, अहंकर ईर्ष्या, छल, मद-मत्सर जैसे दुष्ट विकारों ने अन्तःकरण की सारी जगह घेर रखी है उसमें तिलभर भी शुद्ध आत्मगुणों को प्रवेश कराने की जगह नहीं है ! उपास्य को आत्ममन्दिर में प्रवेश कराना ही सच्ची उपासना है परमात्मा की निराकार उपासना का मार्ग भी यही है कि अपनी आत्मा को हम उत्कृष्ट कोटि का प्रभु मन्दिर समझें और उसमें निकृष्ट दुर्भावनाओं तथा दुर्विचारों को प्रवेश करने से तुरत रोकें। जहाँ जब भी विकारों की गंदगी दिखाई पड़े, उसे शीध्र बाहर निकाल दें। मस्तिष्क को उच्च-विचार, हृदय को उत्कृष्ट क्षमादि गुणों तथा शरीर को उत्तम आचार से ओतप्रोत रखें । यही परमात्मा की भाव-पूजा है, उनके समीप जाने तथा उन्हें निकट बुलाने का उपाय है। निराकार प्रभु की उपासना अपनी विचारणाओं और भावनाओं को परिष्कृत बनाने से ही सम्भव हो सकती है। इस प्रकार सोचने की पद्धति को निकृष्टता के गर्त से निकाल कर उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् आदर्श में औत-प्रोत कर ली जाए तो आत्म-मन्दिर में परमात्मा की छवि या प्रतिमा की स्थापना हो गई। यह निरन्तर प्रभुदर्शन का सौभाग्यशाली सुयोग है। इस प्रकार अन्तः करण से परमात्म-मिलन आनन्द की अनुभूति होती है । उपासना से पापनाश : कब और कैसे ? उपासना से पाप नष्ट होने की बात एसो पंच णमोकारो, सव्व-पावप्पणासणों (ये पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार समस्त पापों का नाश करने वाला है) पाठ में कही गई है, उसका रहस्यार्थ यही है कि व्यक्ति आत्म-साधना के प्रथम चरण का परिपालन करते हुए दुर्भावना और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सतर्कतापूर्वक उनका त्याग करे ! पाप नष्ट होने का अर्थ है पाप कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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