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उपासना का राजमार्ग | १११
प्रकार चन्दन के वृक्ष के समीप उगे हुए सभी झाड़-झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं । भ्रमर और कीट (इयल - इल्ली) का उदाहरण भी प्रसिद्ध है। टिड्डे हरी घास में रहते हैं, तब उनका शरीर हरा रहता है। परन्तु जब वे सूखी घास में रहते हैं तो पीले पड़ जाते हैं । गन्धी की दुकान के पास से गुजरने वाले व्यक्ति को सुगन्ध की प्राप्ति होती है। तितलियाँ फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं। शरीर ठंड से कांप रहा हो तो आग की गर्मी से आवश्यक गर्मी प्राप्त की जाती है । इसी प्रकार आत्मा में शीतलता हो तो परमात्मा या महात्मा रूपी अग्नि से उसमें उष्मा आ जाती है । परमात्मा और साधारण आत्मा का सामीप्य
परमात्मा शुद्ध आत्मा के रूप में प्रत्येक मानव में विराजमान है। जिस प्रकार मछली के भीतर और बाहर पानी ही पानी भरा रहता है, इसी प्रकार मानव के अन्दर और बाहर परमात्म-चेतना का व्यापक समुद्र लहरा रहा है। वह मानव के रोम-रोम में समाया हआ है, चारों ओर घिरा हुआ है। जो इतना समीप हो, इतना व्याप्त हो, उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई हो सकती है ? आत्मा और परमात्मा के बीच पिता-पुत्र, माता-शिशु, भाई-भाई और पति-पत्नी के लौकिक रिश्तों-नातों की अपेक्षा भी अधिक सघन, स्वच्छ और प्रशस्त सम्बन्ध हैं। पिता और पुत्र की समीपता कैसे दुरूह हो सकती है। भाई-भाई से बिछड़ा रहे, यह भी अशक्य है, माता और शिशु का सान्निध्य न रहे, यह कैसे सम्भव है ? इसी प्रकार परमात्मा और साधारण आत्मा का सान्निध्य तो बहुत ही सहज है। सांसारिक रिश्तों में दो भिन्न स्वतंत्र व्यक्तियों की बात रहने से कदाचित कुछ पृथकता और भिन्नता भी रह सकती है, मगर परमात्मा और साधारण आत्मा में तो एक तरह से अत्यन्त घनिष्ठता है, दोनों में तात्विक दृष्टि से अभिन्नता है। भिन्नता तो कर्म या अविद्या ने उत्पन्न की है, जो उपासना के द्वारा हटानी या भगानी आवश्यक है । लाला रणजीतसिंह जी श्रावक ने बृहदालोयणा में यही बात कही है
"सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोई सिद्ध होय ।
कर्ममैल को आन्तरो, बूझे विरला कोय ॥" अप्पा सो परमप्पा (आत्मा ही परमात्मा है) कथन के पीछे भी यही रहस्य है । वस्तुतः आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसा कोई व्यवधान नहीं है, जो हटाया न जा सके, अथवा जिसे हटाने या दूर करने के लिए चिन्तित,
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