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११० { सद्धा परम दुल्लहा मनुष्यों की है, जो इस सुरदुर्लभ मानवकाया को तो पा गए, परन्तु उन्होंने अपने क्रिया कलाप, व्यवहार और दृष्टिकोण में वही पिछड़ा हुआ बचकाना रूप बनाये रखा। माना कि शरीर की हलचलों तथा चिन्तन मनन के रूप में उनमें भी वही चेतना काम कर रही है, जो महान् आत्माओं में होती है, किन्तु उनकी आत्मा में निकृष्टता का आसुरीतत्व भरा पड़ा है, उनकी आस्थाएँ और आकांक्षाएँ मनुष्यता के अनुरूप नहीं हैं । वे शुद्ध आत्मतत्वपरमात्मतत्व से बहत दूर हैं। न ही उनमें परमात्मा शुद्ध आत्मा के निकट पहुँचने की कोई दृष्टि, वृत्ति, रुचि या जिज्ञासा है।
इस दयनीय स्थिति तथा निकृष्ट या अविकसित मनःस्थिति से पिण्ड छुड़ाने के लिए परमात्मा की-देव-गुरु-धर्म की उपासना ही सर्वोपरि उपाय है।
उपासना का अर्थ
कोई कह सकता है कि उपासना का अर्थ समीपता है और मानव परमात्मा के निकट ही है, ईश्वर और मानव में सर्वाधिक सामीप्य है । तब वह दूर कैसे ? जो दूर नहीं है, उसकी समीपता का क्या अर्थ है ? इसका समाधान यह है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं। उप---आसना इन दो शब्दों से उपासना शब्द बना है । उसका शब्दशः अर्थ होता है-उपास्य के समीप स्थित होना = बैठना। परन्तु अधिकांश मनुष्य उपास्य-परमात्मा या देव-गुरु-धर्म के समीप स्थित कहाँ होते हैं ? उनका मन कहीं और भागता है। उनका वचन कुछ और बोलता है, तथा उनकी काया से उपास्य के गुणों से विपरीत दिशा में चेष्टा होती है। उसके साधन (इन्द्रियाँ, सम्पत्ति आदि) भी गलत कार्यों में प्रायः लगते हैं। अतः उपासना की दृष्टि से---उपास्य की स्थिति से अपनी स्थिति जितनी अधिक समीप करली जाएगी या उसके जितना अधिक अनुकूल या समतुल्य बना जाएगा, उसकी क्षमताएँ, शक्तियाँ, योग्यताएँ उसी अनुपात में अपने अन्दर आएँगी और अपने आत्मिक गुणों से लाभान्वित करती चली जाएंगी। उपास्य के सामीप्य का प्रभाव
उपास्य की समीपता का प्रभाव सर्वविदित है। दुष्टों के सामीप्य से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से प्रगति और उन्नति की संभावना भी प्रसिद्ध है । परमात्मा, महात्मा और धर्मात्मा में आध्यात्मिक उत्कृष्टता होती है। इनकी समीपता= उपासना से वैसी ही विशेषताएँ बढ़ती हैं, जिस
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