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________________ उपासना का राजमार्ग मानव-जीवन को सार्थकता : उपासना से मनुष्य-जीवन की सार्थकता तभी है, जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठ सके । नीची योनियों के प्राणी तो अज्ञानवश पेट और प्रजनन के लिए ही जीते हैं ! आहार. निद्रा, भय, मैथुन और परिग्रह के रूप में स्वार्थ-सिद्धि ही उनके जीवन में मुख्य स्थान ले लेती है। शारीरिक लाभ ही उनके मुख्य प्रेरणास्रोत हैं। विचार शक्ति, विवेक-क्षमता, परमार्थ परायणता या परमात्म भक्ति आदि श्रेष्ठ अर्हताएँ उनके जीवन में प्रायः नहीं होती। मानना होगा कि उनका कायिक विकास ही अधिक हुआ है । मानसिक एवं बौद्धिक नहीं, चेतनात्मक विकास तो उनमें नहीं के बराबर होता है। मनुष्य सर्वजीवों में शिरोमणि है, उसका मानसिक, बौद्धिक और चेतनात्मक विकास दूसरे प्राणियों की अपेक्षा अधिक है। अतः मनुष्य को अपने स्तर के अनुरूप मानसिक, बौद्धिक, चेतनात्मक विकास करना चाहिए। अन्यथा वे स्वार्थ-कीट नर-पशु ही कहलाएँगे, जो शरीर संरचना भर से मनुष्य हैं। उनके दृष्टिकोण में पिछड़ी योनियों जैसी निकृष्ट स्वार्थपरता ही भरी पड़ी है। जिस प्रकार मनुष्येतर प्राणी दुसरे प्राणियों के साथ अपना स्वभाव नहीं मिला पाते, उनमें परमार्थ-परायणता के अंश बहत ही नगण्य रूप में पाए जाते हैं। आयु को दृष्टि से ऐसे मनुष्य प्रोढ़ हो जाते हैं, फिर भी अपना सारा आचार-व्यवहार बच्चों जैसा ही रखते हैं, तो उस अविकसित अन्तःस्थिति पर चिन्ता व्यक्त को जाती है, ठोक यही स्थिति उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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