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________________ उपासना का राजमार्ग | ११३ करने की वृत्ति-प्रवत्ति का नाश । परन्तु आज उलटा अर्थ करके अज्ञ लोग स्वयं गुमराह हुए हैं और दूसरों को भी गुमराह करते हैं। पापनाश का मतलब कर लिया-पापकर्मों के प्रतिफल का नाश । यदि ऐसा होता तो लोग पाप को ही पूण्य और कर्तव्य मान लेते । कोई भी पाप से न डरता। इस प्रकार का उलटा अर्थ समझा देने के फलस्वरूप आज अनेक धर्मसम्प्रदायों में यह मूढ़ मान्यता घर कर गई है कि चाहे जितने पाप कर्म करो, दुर्विचारों और दुष्प्रवृत्तियों में पड़े रहो, केवल प्रतिदिन अल्लाह या गॉड अथवा ईश्वर की द्रव्य पूजा कर लो, बस खुदा तुम्हारे पाप माफ कर देगा। परन्तु आत्मिकसाधना के साथ की गई साधना से ही पाप नष्ट या माफ हो सकते हैं। उपासना से उच्चस्तरीय वातावरण का लाभ वातावरण की प्रभावशाली शक्ति कौन नहीं जानता ? मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव उसी ढाँचे में ढला होता है, जैसा वातावरण उसे मिलता है। यदि आध्यात्मिक जीवन का महत्व समझा गया है तो उसे उत्कृष्ट बनाने के लिए उच्चस्तरीय वातावरण में रहना आवश्यक है। सच पूछे तो अच्छेबुरे व्यक्तित्व के निर्माण में वातावरण असाधारण भूमिका अदा करता है । देव, गुरु एवं धर्म (धार्मिक क्रिया, जप, ध्यान आदि) की उपासना से उच्चस्तरीय वातावरण मिलता है, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व चमक जाता है। आत्मा और परमात्मा की एकता के लिए उपासना आवश्यक साधारण आत्मा और परमात्मा में तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है । किन्तु परमात्मा शुद्ध, निष्कलंक, कर्ममलरहित आत्मा है और साधारण आत्मा के साथ वर्तमान में कर्ममल लगा हुआ है, वह रागद्वेषादि विकारों से ग्रस्त है। यदि आत्मा को परमात्मा के साथ मिलना हो तो उपासना उत्तम उपाय है। उपासकदशांग सूत्र आदि आगमों में जहाँ कहीं श्रमणोपासकों के जीवन का वर्णन आता है, वहां 'पज्जवासई' 'पज्जवासामि' कहा गया है--- अमुक श्रमणोपासक वीतराग परमात्मा की पर्युपासना करता है, अथवा वह कहता है-- मैं 'पर्युपासना करता हूँ।" इसका रहस्य यही है कि पर्युपासना करने से वीतराग परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है, उनके तन-मन के उत्कृष्ट परमाणुओं का लाभ मिलता है जिससे मन पर आई हुई विकारों की कालिमा और अशुद्ध विचारों की कलुषता दूर होती है, शरीर में से भी खराब परमाणु निकलकर अच्छे परमाणुओं का ऑक्सीजन मिलता है जिससे शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न रहता है। महापुरुष जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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