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सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन | ७
इसके पश्चात् मुमुक्ष को सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके जरिये वह प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति के विषय में शुद्ध दृष्टि से सोचता है, संसार के प्रत्येक पदार्थ और परिस्थिति को, राग-द्वेष, स्वार्थ, मोह से कषायादि विकारों से दूर रहकर यथार्थ रूप में देखता है, जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में देखता है, स्व (आत्मा) और पर (आत्मेतर पदार्थ) का भेद समझता है । तथा जीव, अजीव आदि नौ तत्वों में हेय, ज्ञय एवं उपादेय को यथार्थ रूप में जानकर हेय को छोड़ने योग्य और उपादेय को ग्रहण करने योग्य समझता है, उसी की दृष्टि सम्यग्दृष्टि है।
इस प्रकार श्रद्धा से लेकर सम्यग्दृष्टि तक जितने भी क्रमिक सोपान हैं, वे सब व्यवहार सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत आ जाते हैं, अर्थात्-वे सब व्यवहार सम्यग्दर्शन में परिसमाप्त हो जाते हैं। साथ में आता है-निश्चय सम्यग्दर्शन; जो नित्य, निरंजन, शुद्ध, बुद्ध आत्म तत्व के प्रति सम्यक श्रद्धान रूप है। जिसे व्यवहार सम्यग्दर्शन के साथ निश्चय-सम्यग्दर्शन हो जाता है, उसे शरीर से पृथक आत्मा के अमरत्व, अजरत्व एवं अविनाशित्व की दृढ़ प्रतीति हो जाती है। उसे आत्मा के स्वरूप एवं गुणों पर इतनी तीव्र श्रद्धा हो जाती है कि मैं शुद्ध आत्मा हूँ, ये शरीरादि मैं नहीं हूँ। मैं तो शरीरादि से पृथक शुद्ध आत्मा है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुएँ, फिर चाहे वे सजीव हों या निर्जीव ये सब परभाव हैं, स्व-भाव तो सिर्फ शुद्ध आत्मा और आत्मा के निजीगुण हैं । ये राग, द्वेष, मोह, ममत्व आदि सब विकार हैं और अन्य विकल्प भी आत्मा के स्प-रूप नहीं है, ये सब अज्ञान एवं भ्रम के कारण आत्मा की विभाव परिणित के विविध रूप हैं, ये भी परभाव हैं । उसे यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि जो मरता है, बूढ़ा होता है, नष्ट हो जाता है, वह शरीर है, आत्मा नहीं। शुद्ध आत्मा तो अजर-अमर, अविनाशी सच्चिदानन्द रूप है।
निष्कर्ष यह है कि यह जो श्रद्धा से लेकर सम्यग्दर्शन तक का क्रम है, वह सम्यक श्रद्धा का ही उत्तरोत्तर विकसित रूप है। इसीलिए ये सम्यक श्रद्धा या सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची शब्द कहे गये हैं।
श्रद्धा के विभिन्न रूप और सम्यक् श्रद्धा अश्रद्धा, कुथद्धा, अन्धश्रद्धा, सामान्य श्रद्धा अथवा लौकिक श्रद्धा या सांसारिक श्रद्धा ये सब श्रद्धा के ही विभिन्न रूप हैं । जिसकी अपने जीवन पर कोई श्रद्धा नहीं होती, जो पर-पद पर आशंका, कुतर्क, या अविश्वास
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