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________________ ६ | सद्धा परम दुल्लहा रत्नत्रयरूप धर्म पर उसकी आस्था दृढ़ हो जाती है और जब वह अनेकों प्राणियों को पूर्वकृत शुभ कर्म के फल स्वरूप इस जन्म में सुख सम्पदा एवं इष्ट संयोग से सम्पन्न देखता है या अशुभ कर्म के फलस्वरूप नाना दुःख दारिद्र य एवं अभावों से पीड़ित देखता है, साथ ही वीतराग प्रभु की अध्यात्म संपन्न वाणी धर्म गुरुओं के श्रीमुख से सुनता है, तथा प्रसन्नता पूर्वक साधु श्रावक वर्ग को धर्माचरण करते हुए देखता है । तो उसे वीतराग प्ररूपित तत्वों, तथा देव, गुरु, धर्म पर पूर्ण प्रतीति हो जाती है। और वह स्वयं अपने श्रद्धापूत हृदय से ये उद्गार निकालता है _ 'तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेइयं' जो (तत्व) जिनेन्द्र भगतों ने प्ररूपित-प्रतिपादित किया हैं वे ही सत्य हैं, निःशंक हैं। __"इणमेव निग्गर्थं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्ण नेयाउयं संसुद्ध सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं ,निव्वाणमग्गं, अवितहमविसंसिद्ध सव्वदूवखप्पहीणमग्गं ।" ___ “यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, केवलि (सर्वज्ञ)-प्ररूपित है, परिपूर्ण है, न्याय युक्त है, संशुद्ध है, शल्य को काटने वाला है, यही सिद्धि का, मुक्ति का, निर्याण (संसार सागर से पार उतरने) का, एवं निर्वाण (परमशान्ति) का मार्ग है। यह अवितथ (यथातथ्य) है, असंदिग्ध है, और समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है।" इस प्रकार का निश्चय हो जाने के बाद मुमुक्ष की निष्ठा निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति, वीतराग प्ररूपित तत्वों के प्रति तथा श्रद्धेय त्रिपुटी (देवगुरु-धर्म) के प्रति दृढ़ हो जाती है। ___इसके अनन्तर मुमुक्ष व्यक्ति सदैव आत्मनिष्ठ होकर आत्महित का चिन्तन करता है, वह सदैव जागृत रहता है कि मुझ अब सम्यक्त्व प्राप्त हो गया है। वह प्रतिदिन चिन्तन करता है-- "अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवाय सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ॥" .. अर्थात्-अब यावज्जीवपर्यन्त अरहन्त मेरे देवाधिदेव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं और जिन प्रज्ञप्त तत्व या सद्धर्म ही मुझे मान्य है । इस प्रकार मैंने सम्यक्त्व ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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