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सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन [५ प्राचीन मनीषियों के इस चिन्तन से स्पष्ट है कि दर्शन शब्द की प्राथमिक यात्रा 'श्रद्धा' अर्थ में परिसमाप्त होती है।
श्रद्धा और दर्शन में अन्तर श्रद्धा का शब्दशास्त्रियों ने निर्वचन किया है-'श्रत्-सत्यं दधातोति श्रद्धा' अर्थात्-जो सत्य को धारण करती है, वह श्रद्धा है। श्रद्धा में सत्य. तत्व को धारण किया जाता है, चिरकाल तक हृदय में जमाकर रखा जाता है, मन-मस्तिष्क में टिकाया जाता है, जबकि दर्शन में उससे आगे बढ़कर वस्तु तत्व को जांचा-परखा जाता है, गहराई से अन्तर्दृष्टि से देखकर निश्चय किया जाता है । यही श्रद्धा और दर्शन में अन्तर है। यों तो श्रद्धा और दर्शन दोनों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु श्रद्धा पहले देव, गुरु, धर्म और शास्त्र पर होती है, तथा जिनोक्त तत्वों को हृदय से स्वीकारती है, उन्हीं की सत्यता पर विश्वास जमाती है, फिर दर्शन आकर सर्वतोमुखी सत्यग्राही दृष्टि से जिनोक्त तत्वों के यथार्थ स्वरूप की जांच परख करता है। उससे फिर आत्मा में निष्ठा होती है तथा आत्मा के विकास द्वारा सम्बन्धित तत्वों पर गहराई से विचार किया जाता है।
श्रद्धा से सम्यग्दर्शन तक का क्रम ___यों देखा जाए तो श्रद्धा, रुचि, विश्वास, आस्था, निष्ठा, प्रतोति, सम्बोधित निश्चय, सम्यग्दृष्टि और सम्यक्त्व, ये सभी सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची शब्द हैं । इनका अर्थ या लक्षण प्रायः एक-सा है। किन्तु गहराई से देखने पर इनमें सूक्ष्म-सा अन्तर मालूम होता है । वैसे ये सभी पर्यायवाची शब्द सम्यग्दर्शन की क्रमिक यात्रा के पड़ाव के सूचक हैं। भव्य और मुमुक्षु व्यक्ति की रुचि सर्वप्रथम सत्य को-तत्व को जानने-समझने की होती है। सत्य की प्यास या चाह ही ऐसा तथ्य है, जो मुमुक्ष को मोक्ष मार्ग की खोज करने की प्रेरणा देती है । जैसे-प्यासा व्यक्ति पानी की खोज करता है, वैसे सत्य की अभीप्सा से युक्त व्यक्ति रुचि पूर्वक आदर्श की प्राप्ति के लिए तीव्र मंथन करता है। उसके बाद उसके मन-मस्तिष्क में श्रद्धा पैदा होती है कि आत्मा के विकास को रोकने तथा बढ़ाने वाले, अथवा आत्मा को बन्धन तथा मुक्ति की ओर ले जाने वाले ये ही तत्व हैं । इनमें से हेय को मुझे छोड़ना है, उपादेय को ग्रहण करना है और ज्ञेय को जानना है। तत्पश्चात् मुमुक्षु को 'विश्वास' हो जाता है, देव, गुरु और धर्म पर । इसके साथ ही आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, श्रत-चारित्र धर्म या
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