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४| सद्धा परम दुल्लहा
दर्शन का अर्थ श्रद्धा क्यों और कब ?
शब्द शास्त्र की दृष्टि से दृश् धातु आलोक प्रेक्षण, या देखना अर्थ में है । अतः दर्शन' शब्द का सामान्यतया अर्थ होता है - जिसके द्वारा देखा जाये, जिससे देखा जाये या जिसमें देखा जाये । दर्शन शब्द का अर्थ जैनाचार्यों ने भले ही आँखों से देखना न करके सूक्ष्नता से, अन्तश्चक्षुओं से देखना या विचार करना किया हो, परन्तु इसका श्रद्धा अर्थ तो कथमपि संगत नहीं है, न ही दर्शन कहने से श्रद्धा अर्थ का सहसा बोध होता है । फिर इस प्रसिद्ध अर्थ का त्याग करके दर्शन शब्द का श्रद्धा अर्थ क्यों किया गया ? इसका समाधान करते हुए तत्वार्थ- सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद आचार्य कहते हैं -- यहाँ मोक्ष मार्ग का प्रकरण होने से तत्वार्थों का श्रद्धान् जो आत्मा का परिणाम होता है वही तो मोक्ष का साधन बन सकता है । चूँकि सम्यग्दर्शन भव्य जीवों में ही पाया जाता है, किन्तु चक्षु आदि के निमित्त से होने वाला अवलोकन प्रेक्षण तो साधारणतः सभी संसारी जीवों में पाया जाता है, अतः उसे मोक्षमार्ग मानना उचित नहीं । इस दृष्टि से श्वेताम्बर - दिगम्बर दोनों जैन परम्पराओं के स्थानांग उत्तराध्ययन, धवला, महापुराण आदि शास्त्रों एवं ग्रन्थों में दर्शन शब्द के रुचि, स्पर्श, श्रद्धा, प्रतीति एवं प्रत्यय ( निश्चय) आदि पर्यायवाची शब्द माने हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है
नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे ।'
( भव्य जीव) सम्यग्ज्ञान से पदार्थों को जानता है, और दर्शन से उन पर श्रद्धा करता है ।
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प्रवचनसार की टीका में भी आचार्य ने कहा
' दर्शनशब्देन निजशुद्धात्म श्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् ।'
अर्थात् - दर्शन शब्द से निज शुद्ध आत्मा पर श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
नियमसार तात्पर्यावृत्ति भी इसी अर्थ का समर्थन करती है' दर्शनमपि जीवास्तिकाय समुपज नित परमश्रद्धानमेव भवति ।' 'शुद्ध जीवास्तिकाय से उत्पन्न होने वाला परम श्रद्धान ही दर्शन है । '
'दृश्यतेऽनेन, अस्मात् अस्मिन् वेति दर्शनम्' ।
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