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सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन
श्रद्धा : सम्यग्दर्शन की यात्रा का प्रथम पड़ाव मनुष्य का चित्त जब विभिन्न वासनाओं, विचारधाराओं, मान्यताओं विकल्पों या मत-मतान्तरों में उलझा हुआ हो, व्यग्र हो, उसका कोई भी एक निश्चित आधार न हो, तब वह यथार्थ विचार नहीं कर पाता। न ही सही देख-सुन पाता है, वह प्रायः अनेक भागों या खण्डों में बँटा रहता है, इसलिए वस्तुतत्त्व का सही निश्चय सम्यकदर्शन नहीं कर पाता अतः अनेकान एवं व्यग्र चित्त को किसी न किसी आधार या विश्राम की आवश्यकता है, ताकि वह वासनाशून्य, एकाग्र एवं शान्त हो सके और वस्तुतत्व का निश्चित और यथार्थ दर्शन कर सके। इस प्रकार का आधार या विश्राम ही श्रद्धा है। ऐसी श्रद्धा का आधारभूत कोई न कोई तत्व या शुद्ध चित्त व्यक्ति होना चाहिए। जिन पर श्रद्धा टिक सके, जो प्रतीति, निष्ठा आदि का रूप धारण करती हुई अन्त में सम्यग्दर्शन तक पहुँच सके । इस दृष्टि से श्रद्धा सम्यग्दर्शन की यात्रा का प्रथम पड़ाव है । प्रारम्भिक भूमिका में इस श्रद्धा का होना आवश्यक है। यह चिरकाल से पोषित मिथ्यात्व, मिथ्याश्रद्धा या मिथ्यादर्शन पर पहली चोट है। आत्मा के मोक्षाभिमुखी बनने के लिए प्रारम्भ में इसका बहत ही उपयोग है । जो अग्नि पहले-पहले प्रकट होतो है, वह बहुत ही उपयोगो होती है । आत्मा में सम्यक्त्व का सूर्योदय प्रकट होने से पूर्व श्रद्धारूपो उषा का आगमन आवश्यक है । इसलिए दर्शन से पूर्व श्रद्धा को जैनाचार्यों ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
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