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________________ १०२ | सद्धा परम दुल्लहा विरोधी समझता है, इस कारण वह अपने मन में संक्लेश दुःख, असंतोष, मनस्ताप, आपत्ति आदि प्राप्त कर लेता है। यह अमृतमय संसार उसे नीरस, एवं बीभत्स प्रतीत होता है । इसी परेशानी एवं मानसिक व्यथा में उसका जीवन नरक-तुल्य बन जाता है। गुणग्राही सम्यग्दष्टि को वही संसार अमृतमय, मित्र, सहायक या बन्धु दिखाई देता है। कठिनाइयों को वह शिक्षक, मार्गदर्शक, साथी और सद्गुणवर्धन की कसौटी मानता है । कठिनाइयों को वह सहर्ष सहकर उनसे गुण, शिक्षण और निर्देशन प्राप्त करता है। जो प्रतिगामी होते हैं, वे दूसरों के साथ लड़ने-भिड़ने तथा उन्हें पीडित करने के आदी हो जाते हैं। जब उन्हें अपने विरोधी नहीं मिल पाते या स्वयं को असमर्थ पाते हैं तो स्वयं को ही परेशान कर आत्महत्या तक कर बैठते हैं। ऐसे दोष दष्टि वाले लोग अपना तन, मन, साधन और धन दूसरों की बुराई के लिए नष्ट कर देते हैं। वे प्रतिरोधी के प्रति नुक्ताचीनी, निन्दा एवं बदनामी का अवसर खोजते रहते हैं । साम्प्रदायिक दृष्टि वाले लोग प्रायः इसी दोषदष्टि की बोमारी के शिकार होते हैं। वे इसी में अपने धन, समय और शक्ति का अपव्यय करते रहते हैं। अपने चारों और बुराई, निन्दा, ईर्ष्या, द्वेषभाव और विरोध का कीचड़ उछालते रहते हैं। किन्तु शुभ दृष्टिकोण वाला मनुष्य अपना तन, मन, धन, साधन, समय और सहयोग देकर अपने चारों ओर भलाई की सौरभ दिखेरते रहते हैं । यह स्थूल संसार अपने आप में न बुरा, गन्दा और अपवित्र है और न अच्छा, रुचिर और पवित्र है । जैसे जिसकी इसे देखने की दृष्टि हो, वैसा ही यह संसार उसे प्रतीत होगा । जिस मनुष्य का देखने का तरीका बुरा और गन्दा हो, वह चारों ओर संसार और संसार के जीव-अजीवमय पदार्थों को गन्दा और बुरा देखकर बेचैन होता रहता है। परन्तु जो सम्यकदृष्टि होगा, वह संसार का जैसा स्वरूप है, उसे उस रूप में देखकर समभाव रखेगा। उसकी दृष्टि में संसार अच्छा या बुरा कुछ नहीं है। वह न तो संसार को देखकर बेचैन होगा और न ही संसार को देखकर उसमें आसक्त या लिप्त होगा । वह तटस्थ रहेगा। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर संसार में रहेगा। विकृत दृष्टि वाला व्यक्ति स्वयं को हर समय दुःखी, अभागा, परेशान एवं संकटग्रस्त ही देखता है । अन्तर्वेदना सुनाते समय विश्व का सारा दुःख सन्ताप, अभाव और पीड़ा अपने ऊपर ही लदी हुई पाता है । इसके लिए वह निमित्त को कोसता है, सभी को गालियाँ देता है, सारा दोष दूसरों पर मढ़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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