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________________ यथार्थ जीवन दृष्टि का मूल्यांकन | १०१ उस युग में भगवान् महावीर का विरोध करने वाले अनेक लोग थे । उनके अकाट्य सिद्धान्तों का खण्डन करने वाले और उनके प्रति घोर शत्रुता रखने वाले भी कई लोग थे । किन्तु भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि 'आपका कोई शत्रु भी है ?' तब उन्होंने कहा 'मित्ती मे सव्व भूएस, वेरं मज्झ न केणई ।' 1 मेरी समस्त प्राणियों के साथ मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैरविरोध या शत्रुता नहीं है । फलितार्थ है - मेरा कोई शत्रु नहीं है । यद्यपि गौतम उनके आज्ञाकारी प्रिय शिष्य थे, और गोशालक उनका कट्टर विरोधी शत्रु - सा था, परन्तु भ० महावीर का दोनों पर समभाव रहा । तथ्य यह है कि अन्तर में निहित दृष्टिकोण विचार का प्रतिबिम्ब ही बाहर झलकता है । यदि अन्तर् में शुद्ध विश्व मैत्री की, निर्मल आत्मोपम्य की अथवा निःस्वार्थ बन्धुत्व की दृष्टि या भावना है तो बाहर में किसी के प्रति द्वेष या मोह की शत्रुता, घृणा या राग की भावना नहीं रहेगी । सामान्यतया मनुष्य जिस दृष्टि से जिस वस्तु को देखता है, उसी के अनुसार उसे सोचता है, उसी के अनुकूल वातावरण उसे मिल जाता है । बुराई देखने वाला अच्छी वस्तु को भी बुरी और अच्छाई देखने वाला बुरी वस्तु में भी अच्छाई के दर्शन कर लेता है । 1 कर्मयोगी श्रीकृष्ण वासुदेव की सवारी नगरी में होकर जा रही थी । एक जगह एक मरी हुई कुतिया सड़ रही थी । उसके शव में से भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी । सभी उस बदबू से दूर रहकर नाक-भौं सिकोड़ते हुए झटपट आगे बढ़ रहे थे, किन्तु तत्वज्ञ एवं सम्यग्दृष्टि श्रीकृष्ण वस्तु स्वरूप का निश्चय करके स्थूल दृष्टि वाले लोगों से कहने लगे, देखो, कुतिया के दांत कितने सुन्दर एवं चमकीले हैं। एक चाकू को हत्यारा या डाकू पराक्रम में सहयोगी शस्त्र, चाकू का शिकार उसे प्राणघातक और एक गृहस्य सन्नारी उसे सागभाजी सुधारने का उपकरण समझती है । दृष्टि व्यक्ति की अन्तरंग भावना का प्रतिबिम्ब दूसरों के प्रति अच्छी या बुरी दृष्टि ही व्यक्ति की आन्तरिक भावना को प्रकट करती है । वह पूर्ण रूप से परिचय करा देती है कि कौन व्यक्ति किस तरह का है ? बाह्य जीवन या दृष्टिकोण ही आन्तरिक भावों की छाया है । दोषग्राही छिद्रान्वेषी व्यक्ति अपनी दृष्टि में सारे संसार को अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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