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१०० | सद्धा परम दुल्लहा नियन्त्रण में रखा जाता है तो उनका व्यक्तित्व और मस्तिष्क दैन्य, दासता
और हीनता की वृत्ति से बुरी तरह जकड़ और कुचल जाता है। उनमें मौलिकता, प्रतिभा और व्युत्पन्नमति का विकास नहीं हो पाता। वे फिर स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र पुरुषार्थ नहीं कर पाते।
मोहग्रस्त व्यक्ति अपने प्रियजनों के स्वस्थ विकास में बाधक बनता है, उनके प्रति अन्याय करता है। कुछेक व्यक्तियों के लिए सब कुछ करने और सोचने की उसकी मनःस्थिति, इस परिधि से बाहर के लोगों के लिए कर्तव्यपालन करने में अत्यन्त बाधक बनती है। वास्तव में मोहग्रस्त व्यक्ति की दुनिया चंद व्यक्तियों तक सीमित होकर रह जाती है। उन्हीं के लिए वह इतना मरता-खपता है कि अन्य किसी के सम्बन्ध में कुछ सोच सकने या कर सकने की वृत्ति ही उसमें पैदा नहीं होती। आसक्ति के साथ जुड़ा हुआ पक्षपात एक परिवार, सम्प्रदाय या वर्ग में सिमटा हुआ रहता है। वह इतना विकट होता है कि सारे जीवन रस को निचोड़ कर वह अपने कुटुम्ब, सम्प्रदाय या वर्ग के लिए ही खपा देने के सिवाय अन्य किसी कार्य के लिए कुछ उपयोगी अनुदान देने के लिए तत्पर नहीं होता।
जैसा दृष्टिकोण, वैसा हो संसार का दर्शन मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण रहता है, उसी के अनुसार उसे संसार दिखाई देता है। अगर अच्छाई का दष्टिकोण है तो वह बुरे से बुरे तत्त्वों में भी अच्छाई ढूँढ़ लेता है, किसी न किसी गुण को पकड़ लेता है । और यदि बुराई देखने-- दुर्गुण ढूँढ़ने का दृष्टिकोण है तो वह अच्छी वस्तु या भले सद्गुणी व्यक्तियों में भी दुर्गुण एवं बुराई ढूंढ लेता है । अच्छाई उसे नजर ही नहीं आती, क्योंकि उसने प्रतिगामी दृष्टिकोण का चश्मा पहना है । जिस रंग का चश्मा चढ़ा होता है, उसे दुनिया का दृश्य उसी रंग का दिखाई देता है। एक ही वृक्ष को विभिन्न व्यक्ति विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं । एक बढ़ई उसे इमारती लकड़ी के रूप में, एक पशुपालक उसके पत्ते आदि को पशु-भोजन के रूप में, साधारण व्यक्ति केवल लकड़ी के रूप में और एक दार्शनिक या आध्यात्मिक पुरुष उसके परोपकारी, कष्टसहिष्णु, प्राकृतिक सौन्दर्यवर्द्धक एवं वैराग्यप्रेरक के रूप में देखता है। पुरोगामी दृष्टिवाला संसार में अच्छाई देखकर कहता है
भित्रस्य चक्ष षा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे' हम सारे संसार को मित्र की दष्टि से देखें।
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