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________________ यथार्थ जीवन दृष्टि का मूल्यांकन | १०३ विवेकी और अविवेकी की दृष्टि जो विवेकवान् और विचारक होते हैं, वे प्राप्त सुविधाओं में सन्तुष्ट रहते हैं, अल्पसाधनों और अल्प आवश्यकताओं में वे सुखानुभूति करते हैं। उन्हें अभाव और असुविधा कष्ट नहीं पहुँचा सकते, क्योंकि वे अभाव और असुविधा को कष्टकारक नहीं मानते, वे मन को ही तदनुसार मोड़ दे देते हैं, ताकि अभाव और असुविधा में भी वे प्रसन्न रहें। वे दूसरों को सम्पन्न और सुविधाभोगी देख कर ईर्ष्या नहीं करते। अगर किसी सत्कार्य में कोई कठिनाई या विघ्न-बाधा है तो विवेकवान् उसे सात्विक उपायों से दूर करने प्रयत्न करता है। इसके विपरीत जो विकृत दृष्टि वाले अविवेकी होते हैं, वे अनेक सुविधाएँ प्राप्त होने पर भी दूसरों को अपने से अधिक सुविधाओं से युक्त देख कर ईर्ष्या वश दुःखी होते हैं, वे उन अनेक सुविधाओं को भी कम मानते हैं और कुछ अभावों को ही समग्र कष्ट का कारण मानकर दूःखी होते हैं। इस असन्तोष की धारा में वे अपने समय और शक्ति का अपव्यय करके सुरदुर्लभ मानव जीवन को पशुतुल्य बना कर गँवा देते हैं। मकान में आग लगने पर अविवेकी विकृत दृष्टि साम्पन्न मानव आग बुझाने का प्रयत्न न करके अपने भाग्य को, निमित्त को कोसता है, रोता-चिल्लाता है, इस प्रकार रो-धोकर दुःख का पहाड़ सिर पर लाद लेता है, किन्तु अपने धन-जन की कुछ भी रक्षा नहीं कर पाता । जबकि विवेकी एवं दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति आग लगने पर रोने-धोने में समय का दुर्व्यय न करके आग बुझाने के साधन जुटा कर उससे अपने धन-जन की रक्षा कर लेता है। अगर कुछ नष्ट भी हो गया है तो वह उसकी चिन्ता न करके संसार के समस्त पदार्थों की अनित्यता, नश्वरता और पर-भाव से सम्बन्धित चिन्तन करता है और नष्ट होने की चिन्ता में घुल-घुल कर आर्तध्यानवश अशुभ-कर्मबन्ध नहीं करता। एक बेसमझ अविवेकी छात्र परीक्षा में फेल होने पर दुःखी होता है। आत्महत्या तक कर लेता है या निमित्तों को कोसता है, अपनी स्थिति और पुरुषार्थ की कमी को नहीं देखता, जबकि, विवेकी एवं समझदार छात्र फेल होने पर अपनी स्थिति और पुरुषार्थ में कमी को देखकर सत्तोष कर लेता है, और भविष्य में अध्ययन में अधिकाधिक पुरुषार्थ करता है। यह दृष्टिकोण का ही अन्तर है कि विवेकी और समझदार व्यक्ति आर्थिक तंगी होने पर आय के अन्य सात्विक और नैतिक स्रोत ढूंढकर अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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