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________________ ६८ | सद्धा परम दुल्लहा मनुष्य की दृष्टि जीवन यात्रा के गन्तव्य स्थल (लक्ष्य) पर रहनी चाहिए। यह भूल नहीं जाना चाहिए कि हम ऐसे लम्बे मार्ग के पथिक हैं, जिसे लगातार द्र तगति से और सतर्कतापूर्वक चलते रहना ही उचित है। उत्कृष्ट चिन्तन, और सम्यक दृष्टिकोण की दो टाँगों के द्वारा की गई यात्रा ही गन्तव्य स्थान तक पहुँचा सकती है। मार्ग में वस्तुओं का लोभ और व्यक्तियों का मोह मनुष्य की लक्ष्यमुखी यात्रा को ठप्प कर देते हैं । औचित्य की सीमा को लांघकर जब लोभ और मोह की प्रवृत्तियों को प्रश्रय दिया जाता है, तब वे जीवन को निन्दनीय और हानिकारक बना डालती हैं। उपलब्ध वस्तुओं के प्रति लोभ लालसा और तृष्णा का रूप ले लेता है अथवा अनुपलब्ध वस्तुओं को पाने की तथा अधिक संग्रह करने की ललक उठती है, अथवा प्राप्त वस्तुओं और व्यक्तियों के मोह में मनुष्य अन्धा हो जाता है तो समझना चाहिए, वह अपने लक्ष्य से भटककर अनीति और अधर्म की, पाप और अन्याय की राह पर चल पड़ा है। जीवन यात्रा का लक्ष्य स्थान मनुष्य जीवन की दहलीज के साथ जुड़ा हुआ है । यदि जागरूकता बरती जा सके और दूरदर्शिता का प्रयोग हो सके तो गृहस्थजीवन में भी ऐसी सन्तुलित एवं सदुपयोगी नीति-रीति अपनाई जा सकती है, जिसमें शरीर निर्वाह, परिवार का पालन-पोषण एवं उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है। उपलब्ध वस्तुओं का श्रेष्ठतम सदुपयोग और सम्बद्ध व्यक्तियों के प्रति आदर्श कर्तव्यपालन को ध्यान में रखा जाए तो न तो विलासी उपयोग होगा और न ही अत्यधिक धन-संग्रह होगा। इसी कारण अनीति, अन्याय और शोषण से उपार्जन की इच्छा न होगी और लक्ष्य के प्रति सदा जागृति भी रहेगी। आत्मदृष्टि से सम्पन्न, उत्साह एवं आनन्द से भरा अन्तःकरण ही उच्चस्तरीय चिन्तन एवं श्रेष्ठ कर्त्तव्य अपना सकता है । इन दो साधनों के सहारे अपर्णता को पूर्णता में परिणत कर जीवन लक्ष्य तक पहुँचना हो सकता है। जीवन यात्रा को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने की दृष्टि से मनुष्य जीवन की विशिष्ट स्थिति को ध्यान में रखना होगा । और उसके सदुपयोग और यथायोग्य कर्तव्य-पालन के लिए तत्परतापूर्वक कटिबद्ध रहना होगा। इसमें प्रमाद करने से उस सौभाग्य से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो थोड़ी-सी सतर्कता रखने से सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है । बुद्धिमान सुदृष्टि सम्पन्न यात्री जीवन यात्रा के रास्ते में आने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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