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यथार्थ जीवन दृष्टि का मूल्यांकन | ६७
अनेक गतियों और योनियों में भटकता-भटकता इस विकासशील अवस्था तक पहुँच सका है । जहाँ से लम्बी आध्यात्मिक छलांग लगाकर वह पूर्ण विकास की मंजिल तक पहुंच सकता है।
पेट और प्रजनन तक की नाना गतिविधियों में सीमाबद्ध जीवनक्रम कितना सरस, कितना नीरस, कितना मृदू, कितना कटु, कितना सारभित,
और कितना निःस्सार होता है, उसे मानव पिछड़ी पूर्व योनियों में अनुभव कर चुका है। अब उसी अनुभव को मानवभव में दुहराने की आवश्यकता नहीं । न ही देव दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त होने के अवसर को इन्द्रियविषयलिप्सा, तृष्णा, अहंता-ममता एवं मोह-माया की निम्नस्तरीय पूति में नष्ट करने की आवश्यकता है। क्योंकि, मनुष्य-जीवन का लक्ष्य वैषयिकसुखसम्पादन नहीं, सच्चिदानन्दत्व प्राप्त करना है। चपला की चकाचौंध की तरह इन्द्रियसुखलिप्सा, धनलोलुपता, सन्तानैषणा, लोकैषणा, प्रतिष्ठा प्राप्ति आदि क्षणिक हैं, इनकी प्राप्ति जीवन का लक्ष्य नहीं है । इन सबकी पूर्ति में सुख मानने वाला व्यक्ति इन नाशवान् पदार्थों के मोहान्धकार से आवृत होकर एक दिन मरकर उसी अन्धतमस् वाले क्षेत्रों में जाकर उत्पन्न होता है । वह अपने पीछे भी गहरा अन्धेरा छोड़कर चला जाता है।
शरीर को गलाते चलने वाली वासना और मन को जलाते रहने वाली तृष्णा की पूर्ति करना हो जीवन का लक्ष्य हो तो मानवजन्म सबसे निरर्थक है । मनुष्य का जीवन मरण, जरा-जीर्णता, रुग्णता और विपन्नता की रस्सियों से बंधा हआ है। मनुष्य की जिन्दगी क्षणभंगुर है, नाशवान है। कब जिंदगी के नाटक का पटाक्षेप हो जाए, कुछ पता नहीं । ऐसी अनिश्चित परिस्थितियों में रहते हुए धूप-छाँह जैसी नगण्य उपलब्धियों पर इतराना और तृष्णा अहंता की तनिक-सो पूति पर गर्वोन्मत्त होना बालबुद्धि का चिह्न है । तृष्णा और इच्छा की जरा-सी पूर्ति हो भी गई तो आग में घी डालने की तरह लालसा की आग पहले से भी अधिक तीव्र रूप से भभकती है । अतः सम्यग्दृष्टि सम्पन्नता की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य अपनी लम्बी जीवनयात्रा में अपने लक्ष्य से इधर-उधर न भटके । मनुष्य जीवन ही अपनी जीवन यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचने में अत्यधिक सहायक हो सकता है। अगर वह वासना, तृष्णा और अहंता आदि के वोहड़ों में ही भटक-अटक कर लक्ष्य तक पहुँचने में अधिक विलम्ब करता हो तो सम्यग्दृष्टिसम्पन्न मानव को चाहिए कि वहाँ से ही उसे मोड़कर लक्ष्य पथ पर तीव्र गति से दौड़ते हुए यथासमय लक्ष्य तक पहुँचे।
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