SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ | सद्धा परम दुल्लहा बड़ा परिवर्तन नहीं होता, थोड़े दिन हल्की-सी चर्चा या जनोत्सुकता होकर रह जाती है। परन्तु अन्तःकरण की रुचि, वृत्ति एवं प्रवृत्ति में उत्सुकता आते ही पूरे जीवन का स्वरूप असाधारण तौर पर बदलने लगता है। वाल्मीकि, अर्जुनमाली, हरिकेशबल आदि के शरीर, अंगोपांग, इन्द्रियाँ और मस्तिष्क वे ही थे, परन्तु अन्तःकरण की रुचि, वृत्ति, प्रवृत्ति में उत्कृष्ट आस्था प्रविष्ट हो गई। उनको डाकू, हत्यारे, और असंस्कारी का क्षुद्र जीवन अनुचित और साधुजीवन उचित लगने लगा। वे तप, त्याग, और संयम की त्रिवेणी में स्नान करने लगे । उत्कृष्ट आस्थावान व्यक्तियों में आत्मविश्वास की उच्च स्तरीय विभूति होती है, जिसके बल पर आदर्शों के प्रति वे अडिग रहते हैं। भय और प्रलोभन उन्हें विचलित नहीं कर सकते । ऐसी स्थिति में व्यक्तित्व के विकास में आने वाले अन्य सभी अवरोध घटते या मिटते रहते हैं। यही आन्तरिक सौन्दर्य में वृद्धि का प्रमाण है, जो उत्कृष्ट आस्थाओं से होती है। वे ही शरीर के आरोग्य, मानसिक आनन्द और आन्तरिक सन्तोष से परिपूर्ण जीवन निर्माण करने में सहायक होती हैं। अतः उत्कृष्ट एवं अविकृत आस्था मुमुक्षु मानव की आध्यात्मिकता का मेरुदण्ड है। उसे हर मल्य पर सुरक्षित और सुदृढ़ रखना चाहिए। उसे न तो विकृत होने देना चाहिए और न ही लुप्त । उत्कृष्ट आस्था की जड़ें मजबूत होने पर ही मनुष्य आध्यात्मिक साधना में प्रगति कर सकता है । और अपनी आत्मा को सुखी, सन्तुष्ट एवं उल्लासमय बना सकता है। उत्कृष्ट आस्था की दो कसौटियाँ उत्कृष्ट आस्था की दो कसौटियाँ हैं- (१) सघन आशावादिता और संकट में भी मुस्कान भरी प्रसन्नता । इन दोनों मानसिक उपलब्धियों के कारण मानव जीवन इतना सरस और सरल रहता है कि सामान्य मनुष्यों को कष्ट देने वाले शोक-सन्ताप, उद्विग्नता, दैन्य आदि उसके पास नहीं फटकते । उत्कृष्ट आस्था के फलस्वरूप सदा अनुकुल स्थिति ही बनी रहेगी, अथवा प्रचुर सुख सामग्री उपलब्ध रहेगी, ऐसी बात नहीं है, अभाव हानि, दूष्टवियोग-अनिष्ट संयोग की परिस्थितियाँ भी आ सकती हैं; किन्तु उत्कृष्ट आस्थावान् व्यक्ति स्वयं को बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप ढाल लेता है, वह सांसारिक लोगों की तरह सभी परिस्थितियों में अडिग रहता है, हार नहीं खाता । वह प्रतिकूल संयोग में रोता-खीजता नहीं । उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy