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________________ उत्कृष्ट आस्था के मूलमंत्र | ६३ एक विचारक ने कहा है---उत्कृष्ट आस्था का दूसरा नाम ही परमात्मा है । परमात्मा को मानने का फलितार्थ है-आदर्शों के प्रति अविचल आस्था बनाए रखना । जिसने आदर्शों के प्रति अपनी आस्था खो दी, उसके दृष्टिकोण में निकृष्टता और व्यवहार में दुर्व्यवहार की मात्रा बढ़ती चली जाती है। नाव में जैसे पानी भरने से वह भारी होते-होते बने लगती है, वैसे ही उत्कृष्ट आस्थाविहीन मानव अपनी आन्तरिक गरिमा खोता चला जाता है, तब उसके पास आत्मवंचना ही बची रहती है, जो वाणी में तो उक्त सिद्धान्तों और आदर्शों की डींग हांकता है, मस्तिक में भी देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के विचारों को जमा कर लेता है, किन्तु व्यवहार और आचरण में उत्कृष्ट आस्था के दर्शन नहीं होते। ऐसी निकृष्टता आगे चलकर मनुष्य को सम्मान, विश्वास और मैत्री से वंचित कर देती है। उत्कृष्ट आत्मा का फलितार्थ : संकल्प पूर्ति जिसे अपने आप पर, परमात्मा पर और अपने साहस एवं पौरुष पर आस्था है, उसके संकल्प प्रायः पूर्ण होकर रहते हैं। अनिश्चित और शंकाशील प्रकृति के लोग देर तक किसी काम में लगे नहीं रह सकते । एक के बाद दूसरा मनोरथ बदलना और बार-बार बदलना और बार-बार उन्हें छोड़ना अनास्था का प्रतीक है। ऐसे विचलित मनुष्य किसी लम्बे मार्ग पर अधिक समय तक नहीं चल सकते । जरा-सी असफलता मिलने या सोचे हुए समय से कुछ अधिक समय लग जाने पर वे हायतोबा मचाने लगते हैं। जरा-सी असफलता उन्हें अत्यन्त कष्टप्रद एवं विक्षोभकारक लगती है। ऐसे लोगों को सदैव दुर्भाग्य का रोना रोते देखा गया है । महत्वपूर्ण सफलता उन्हें मिली है, जो उत्कृष्ट आस्था की पतवार पकड़ कर दुगुने उत्साह से जीवन नैया को अनवरत खेता रहता है। ऐसे उत्कृष्ट आस्थावान व्यक्ति धैर्य और साहस की तलवार पकड़कर जीवन-संग्राम में विजयी होते हैं। उनकी प्रखर आस्था ही उनके व्यक्तित्व को प्रखर और प्रतिभाशाली वनाती है। उत्कृष्ट आस्था से अन्तःकरण को सुन्दरता में वृद्धि शरीर और वस्त्र आदि की सुन्दरता पवित्रता और चरित्रशीलता की पर्याय नहीं है। अन्तःकरण की सुन्दरता की पर्याय है ---जीवन की पवित्रता और चरित्रशीलता तथा सुव्यवस्था । अन्तःकरण की सुन्दरता की रक्षा और वद्धि होती है .-उत्कृष्ट आस्थाओं से । जो लोग शरीर आदि की बाह्य सुन्दरता ही देखते हैं, उनकी दृष्टि में उथलापन है, विवेक शक्ति का दौर्बल्य है । बाह्य स्थिति में, वेश-भूषा में या रहन-सहन में फेरफार से कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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