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६० | सद्धा परम दुल्लहा
आन्तरिक गरिमा के कारण वे जनमानस पर असाधारण छाप छोड़ गये हैं। भले ही उनके पास स्वल्प साधन रहे हों, उनके गुणानुवाद लोग प्रभातियों की तरह गाते हैं । उनके जीवन संस्मरण और संक्षिप्त वचनों को जनता उत्साहपूर्वक सुनती, पढ़ती या कहती है । उत्कृष्ट आस्था के कारण उनका व्यक्तित्व इतना महान् होता है कि कुबेर का वैभव और इन्द्र का ऐश्वर्य उन पर न्यौछावर किया जा सकता है । निष्कर्ष यह है कि मानव-जीवन का परम श्रेयस्कर और शान्तिदायक उत्कर्ष चिन्तन के निखार और गतिविधियों के सुधार के साथ आस्थाओं के परिष्कार पर निर्भर है । अन्तःशक्ति का स्रोत एवं अद्भुत उपलब्धियों का आधार उत्कृष्ट आस्था है । इसी से जीवन का अभिनव निर्माण और व्यक्तित्व का कायाकल्प हो सकता है ।
उत्कृष्ट आस्था के दो पक्ष : सिद्धान्त और अभ्यास
अध्यात्म के मौलिक सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें तो उत्कृष्ट आस्था व्यक्ति के व्यक्तित्व में से अनगढ़ तत्वों को बाहर निकाल कर उसके स्थान में उस प्रकाश को प्रतिष्ठापित करती है, जिसके आलोक में जीवन को सच्चे माने में विकसित और परिष्कृत किया जा सकता है । इसी से मान्यता और क्रिया क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया जा सकता है ।
उत्कृष्ट आस्था का निर्माण होता तो अन्तरात्मा में ही है, किन्तु इसका प्रशिक्षण, थ्योरी ( सिद्धान्त ) और प्रेक्टिस (अभ्यास) दोनों माध्यमों से होता है । थ्योरी एक प्रकार से उत्कृष्ट आस्था का सद् ज्ञान है, जो जीवन को उच्चस्तरीय लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरणा देती है । इसे ही आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, तत्त्वज्ञान या सम्यग्ज्ञान के नामों से जाना-माना जाता है । ब्रह्मविद्या का तत्व ज्ञान उत्कृष्ट आस्था की थ्योरी में निहित है । प्रेक्टिस से तात्पर्य है - उत्कृष्ट आस्था को गतिशीलता या क्रियाशीलता प्रदान करना, जिससे सूर्य के उजाले की तरह पता लग सके कि दोष विवर्जित, पवित्र, तप त्यागमय जीवन यापन की रीति नीति क्या होती चाहिए ? अथवा मुक्ति के पथ पर अग्रसर होने के लिए किस क्रम से गतिविधि निर्धारित की जानी चाहिए ? उत्कृष्ट आस्था के दो पक्ष हैं - एक है चिन्तन पक्ष और दूसरा है - कर्तृत्व-पक्ष । चिन्तन-पक्ष के प्रयोजन की पूर्ति के लिए आगम, शास्त्र, दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र या आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं ।
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