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________________ उत्कृष्ट आस्था के मूलमंत्र | ८५ पुष्ट, सुदृढ़ और परियक्व नहीं हो सकता। इसलिए आस्तिक्य या उत्कृष्ट आस्था का अर्थ व्याकरणशास्त्र के अनुसार है-आस्तिकता का भाव या क्रिया। आस्तिक का स्पष्टार्थ किया गया है-आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरकादि परलोक, पूण्य-पाप कर्म, तथा बन्ध-मोक्ष आदि विषयों का अस्तित्व तथा इसके वस्तुत्व (वास्तविक स्वरूप एवं मूल्य निर्णय) को जो जानता-मानता है वह आस्तिक है । आस्तिकता (आस्था) आस्तिक के भावविचार या कार्य का नाम है । आस्थाओं के दो वर्ग : निकृष्ट और उत्कृष्ट अन्तरात्मा में स्थित आस्थाओं के दो वर्ग दृष्टिगोचर होते हैं । इनमें से एक निकृष्ट है, दूसरा उत्कृष्ट है । उत्कृष्ट आस्थाएँ नैतिकता, धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता से ओतप्रोत रहती हैं, जबकि निकृष्ट आस्थाएँ पाशविक आसुरी या तामसिक होती हैं। ये अनैतिकता, अमानुषिकता, स्वार्थान्धता, पशु प्रवृत्ति, पैशाचिकता, हिंसा, झूठ-फरेब, बेईमानी, पापाचार आदि से ओतप्रोत रहती हैं । छल, अहंकार, शोषण, उत्पीड़न, अपहरण, ईर्ष्या, द्वेष, जैसे भयंकर दुर्गुणों की असुरता निकष्ट आस्थावान् के स्वभाव का अंग बन जाती है। उसके मस्तिष्क तथा तन-मन का रुझान भी उसी दिशा में गतिशील रहता है। लोभ, मोह, तृष्णा, वासना और अहंता की पूर्ति के लिए उसमें सतत लिप्सा उठती रहती है । जिसके प्रति राग होता है, उसके प्रति अतिपक्षपात करने तथा जिसके प्रति द्वेष होता है, उसे समूल नाश करने जैसी विनाशलीला रचने की ही वह उधेड़ बुन करता रहता है । उसमें न्याय, औचित्य एवं विवेक की छाया भो दिखाई नही पड़ती। ऐसे लोगों को दुर्जन, दैत्य या नरपिशाच कहा जाता है। इसके विपरीत उत्कृष्ट आस्थावान व्यक्ति आदर्शवादी, सत्श्रद्धाशील, पवित्र, उदार, तपत्यागनिष्ठ, सज्जन या सन्त होता है, उसमें न्याय-नीतिपरायणता, परमार्थवृत्ति एवं परदुःख-भंजनता कूट-कूट कर भरी होती है। सरलता, सत्यता, निर्भयता, समता, कष्टसहिष्णुता, क्षमा, दया आदि सद्गुणों का निवास तो होता ही है। उनका तन-मन-मस्तिष्क और अंगोपांग उसी दिशा में गति-प्रगति करते हैं। अन्तरात्मा में निहित अच्छी-बुरी आस्थाएँ ही मनुष्य को ऊपर उठने या नीचे गिरने की प्रेरणा देती है। उसी की प्रतिक्रिया व्यक्तित्व को समुन्नत या पतित बना देती है। इसी आस्था स्रोत से उत्पन्न आन्तरिक उत्थान-- पतन के आधार पर मनुष्य का स्वर्गीय, नारकीय या मोक्षमार्गीय दृष्टिकोण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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