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८४ | सद्धा परम दुल्लहा के, उचित और अनुचित के, आदतों और स्वभावों के तथा पक्ष और सिद्धान्त से सम्बन्धित अनेकानेक मान्यताएं इसी अन्तरात्मा के केन्द्र में अड्डा जमाए बैठी रहती हैं । व्यक्तित्व का सारा ढांचा यहीं निर्मित होता है। मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव अपने आप बनते या बिगड़ते नहीं है। आस्थाएं ही मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव को बनाती या बिगाड़ती हैं। आस्थाएँ ही इन सब की प्रेरक हैं। शरीर तो जड़ है, उसकी या उससे सम्बन्धित इन्द्रियों या अंगोपांगों की न तो अपनी कोई इच्छा होती है और न ही स्वयं की गति । मन-मस्तिष्क में सोचने, समझने, जानने और ग्रहण करने की क्षमता तो है, लेकिन दिशा-निर्धारण करना उनकी सामर्थ्य से बाहर है। शरीर की क्रियापद्धति और मस्तिष्क की विचारणा को न तो दोष दिया जा सकता है और न ही श्रेय। ये दोनों तो स्वामिभक्त सेवक की तरह प्रत्येक आत्मा की भलीभाँति ड्यूटी अदा करते रहते हैं । इन में अन्तरात्मा की अवज्ञा करने की कोई शक्ति नहीं। सारा सूत्र-संचालन तो अन्तरात्मा के गहन अन्तराल में बैठी हई आस्थाओं द्वारा होता है। आस्थाओं के पट्रोल से जीवनरूपी मोटर गाडी के दोनों पहिये-चिन्तन और कर्तव्य सरपट दौड़ते हैं। विचारणाओं और कृतियों के लिए उत्तरदायी एवं अन्तिम निर्णायिका आस्था ही होती है। व्यक्ति जो कुछ सोचता या करता है, रुचि रखता है या इच्छा करता है; वह सब कुछ अन्तरात्मा में स्थित हाईकमान-आस्था के दिशा-निर्देशन या नीति-निर्धारण से होता है। निष्कर्ष यह है कि मानव के व्यक्तित्व या जीवनसत्ता पर आधिपत्य इसी आस्थारूपी शासनाध्यक्ष का रहता है। व्यक्तित्व की गरिमा आंकने की कसौटी उसकी आस्थाएँ ही होती हैं ? उत्कृष्ट आस्था का वास्तविक स्वरूप
जैनदर्शन में आस्था को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है। वहाँ सम्यक्दर्शन के पांच लक्षणों में अन्तिम लक्षण आस्था या आस्तिक्य है। किसी मनुष्य में सम्यग्दर्शन है या नहीं इसकी पहचान शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था (आस्तिक्य) इन पाँच लक्षणों से होती है। उनमें आस्था सम्यग्दर्शन को पहिचान का अनिवार्य अंग है। सम्यग्दर्शन को नींब मजबूत बनाने हेतु उत्कृष्ट आस्था का होना जरूरी है, तभी व्यक्ति में श्र तधर्म क्रियान्वित हो सकता है । किन्तु यदि आस्था का अर्थ जिनोक्त तत्त्वों के प्रति या देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा रखना; इतना ही किया जाए तो सम्यग्दर्शन
और आस्था (आस्तिक्य) में कोई अन्तर नहीं रह जाता तथा इनके प्रति कोरी श्रद्धा आगे चलकर गड़बड़ा सकती है। श्रद्धामात्र से सम्यग्दर्शन परि
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