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८६ | सद्धा परम दुल्लहा बनता है । जैन-पारिभाषिक शब्दों में कहें तो शुभ, अशुभ या शुद्ध परिणति का निर्माण होता है। अनास्था के अनिष्ट परिणाम
उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अगर आस्थाएँ डगमगाने लगें तो प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थ-परायण होने की दिशा में अधिकाधिक तेजी के साथ बढ़ता जाएगा। फलतः पारस्परिक स्नेह, सद्भाव, सहयोग और उदारता की उन सभी सत्प्रवृत्तियों का अन्त हो जाएगा, जिनमें मनुष्य को कुछ त्याग करना एवं कष्ट सहना पड़ता है।
आस्थाएँ बहुत ही मुश्किल से बनती और जमती हैं। उन्हें उखाड़ देना आसान है, परन्तु दुबारा लगाना-जमाना बहुत ही कठिन है, बल्कि कभी-कभी असम्भव हो जाता है। विश्वासी को अविश्वासी बनाने के पश्चात् उसे पूनः उसी स्थान पर ले आना प्रायः कठिन है । वक्ष को छायादार होने में लम्बी साधना करनी पड़ती है किन्तु यदि उसे उखाड़ना हो तो कुछ घन्टे की काट-छाँट ही पर्याप्त है । आस्था का कल्याणकारी वृक्ष बोने, उगाने और पल्लवित करने में हजारों वर्ष लगते हैं, लेकिन अनास्था का प्रतिपादन करके उसे उखाड़ देना बहुत कठिन नहीं है ।
मस्तिष्क बिना पेंदे का लोटा है । उसे तर्क युक्ति के सहारे जिधर घुमाया जाय, घूम जाता है। वह प्रायः रुचि और आदत के पीछे चलता है । जो बात प्रसंद हो उसके पक्ष में बहुत कुछ कहा जाता है, दलील दी जाती है, प्रमाण और उदाहरणों द्वारा यथार्थ सिद्ध किया जाता है । देव, गुरु, धर्म, अध्यात्म आदि के विरुद्ध अनास्था उत्पन्न की जा सकती है। तीव्र मस्तिष्क के लिए यह बांये हाथ का खेल है । पर देखना यह है कि क्या इस प्रकार की अनास्था उत्पन्न करने से व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को कुछ लाभ भी है या हानि ही है ?
इस पर दीर्घदष्टि से चिन्तन करने पर स्पष्ट होता जाएगा कि अनास्था बढ़ाने से लाभ के बदले हानि ही अधिक है। जैसे-जैसे अनास्था व्यापक और प्रबल होती जाएगी वैसे-वैसे समाज में उच्छखल आचरण, अपराध वृत्ति, स्थार्थपरायणता संकीर्णवृत्ति आदि बढ़ती जाएगी।
आज अनास्था का जितना विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में आदर्शवादिता का सारा ढांचा लड़खड़ाने लगा है। आस्था की जड़ें केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित नहीं, उसकी जड़ें सर्वभूतात्मवाद तक फैली हुई
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