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________________ दृष्टि बदलिए, सृष्टि बदलेगी | ७६ अनन्त-अनन्त अशुभकर्मों को बाँधता रहेगा। क्योंकि उसकी दृष्टि में समत्व नहीं आया। उसी के पड़ोस में एक सम्यक्दृष्टि व्यक्ति रहता है । वह दुःख आ पड़ने पर निमित्त को या भगवान् को नहीं कोसता, उसकी दृष्टि में समत्व है, इसलिए वह दुःख को अपना पूर्वकृत कर्मफल मानकर समभाव से सहेगा । फलतः वह प्रतिक्षण अशुभ कर्मों को क्षय करता रहेगा । दुःख के समय भी उसके चेहरे पर प्रसन्नता और शान्ति की झलक होगी। यह है दृष्टि के अनुरूप सृष्टि का चमत्कार ! यों दृष्टि नहीं बदलती कई लोग ऐसा सोचते हैं कि अमुक महापुरुष के सान्निध्य में रहने पर या अमुक आचार्य से देव-गुरु-धर्म से सम्बन्धित सम्यक्त्व का पाठ सुन लेने अथवा यों कहें कि अमुक धर्मगुरु से सम्यक्त्व का लेबल लगवा लेने पर मनुष्य की दृष्टि बदल जाती है, वह सम्यकदृष्टि बन जाता है; परन्तु यह बात एकांगी है। तथ्य यह है कि जब तक साधक की अन्तरात्मा नहीं जगती, जब तक सचाई खोजने, वस्तुस्वरूप को समझने की तीव्र उत्कंठा या रुचि व्यक्ति के मन में नहीं पैदा होती, तब तक विश्व का कोई भी महापुरुष या धर्मगुरु उसकी दृष्टि को असम्यक् से सम्यक् नहीं बना सकता । गोशालक महावीर के साथ छह वर्षों तक रहा, वह भगवान् महावीर को अपना गुरु मानता था, भगवान के साथ-साथ छाया की तरह विचरण करता रहा, परन्तु उसकी अन्तरात्मा में सत्य जानने को उत्कण्ठा नहीं जगी, वह दीर्घकाल तक अपनी दष्टि नहीं बदल सका। बल्कि जब वैश्यायन बालतपस्वी ने बार-बार कट शब्द कहने पर गोशालक पर क्रुद्ध होकर तेजोलेश्या छोड़ी, तब भगवान महावीर ने अनुकम्पा करके उसकी रक्षा के लिए शीतलेश्या का प्रयोग किया। शीतलेश्या ही अन्त में विजयी हई । गोशालक शीतलेश्या की शक्ति की उत्कृष्टता जान-देख चुका था, फिर भी उसके मन में भगवान् से तेजोलेश्या प्रयोग सीखने का ही विचार क्यों आया ? तेजोलेश्या से प्रखरतर शीतलेश्या का प्रयोग सीखने का विचार क्यों नहीं जागा ? इसका कारण था, गोशालक को दृष्टि बदलो नही थी। उसके मन में अंहकार, बदला लेने की भावना एवं रोष-द्वष जागा। उसकी इस मिथ्यादृष्टि के फलस्वरूप उसके मन में तेजोलेश्या सोखकर अपना अपमान करने वाले को जलाकर भस्म करने की ही दुर्भावना बनी रही। वास्तव में यह दृष्टि न बदलने की मनःस्थिति यह वह दुःस्थिति है, जिसे कोई देव, देवाधिदेव, या धर्मगुरु नहीं बदल सकते । दृष्टि-परिवर्तन की पूर्ण प्रभुसत्ता महापुरुष, देव, या धर्मगुरु के पास नहीं है, वे तो निमित मात्र हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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