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________________ ८० सद्धा परम दुल्लहा अपनी आत्मा ही दृष्टि को बदलने में समर्थ है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के प्रदान का सम्बन्ध भी धर्मगुरु के साथ जोड़ना यथार्थ नहीं है, उसका सम्बन्ध तो आत्मा के साथ है । वह अगर पाप और धर्म, संसार-मार्ग और मोक्षमार्ग, जीव (आत्मा) और अजीव, बन्ध और मोक्ष, आस्रव और संवर इन तत्वों को सम्यक् प्रकार से समझ लेता है, इनके स्वरूप को भलीभांति हृदयंगम कर लेता है, हठाग्रह छोड़कर सत्य-तथ्य को जानने की तीव्र उत्सुकता है, तो समझ लीजिए उसकी दृष्टि सम्यक् हो चुकी है। वह सम्यक्त्वी है। गुरु तो उसकी भावना को जगाने में निमित्त मात्र हो सकते हैं। गुरु के दिवंगत हो जाने पर उस व्यक्ति के द्वारा प्राप्त की हुई सम्यकदृष्टि मर नहीं जाती, वह बदलने की चीज नहीं है। अतः दृष्टि स्वयं बदलने की चीज है, बाहर से लादने या थोपने की चीज नहीं । न ही वह पैतृक परम्परा से प्राप्त होती है। अमुक व्यक्ति के बाप-दादा सम्यकदृष्टि थे, इस कारण उसका बेटा-पोता भी सम्यक्दृष्टि होता है, ऐसा भी जैन दर्शन नहीं मानता। सम्यकदृष्टिविहीन परिणामों को सृष्टि आज हजारों मनुष्य ऐसे मिलेंगे, जो वीतराग प्रभु की स्तुति करते हैं, उनका नाम स्मरण करते हैं, उनके नाम की माला भी फिराते हैं, पूजाभक्ति भी करते हैं, श्रद्धा भी उनके प्रति रखते हैं, परन्तु यह सब किसलिए? इसलिए कि वे भगवान् से धन-सम्पत्ति, पूत्र, पौत्र, सुख सामग्री, या स्वार्थलिप्सा, सुरक्षा, शत्रु पर विजय आदि भौतिक या लौकिक प्राप्ति कर सकें। लेकिन यह दृष्टि यथार्थ नहीं है, भगवान का वास्तविक वीतरागत्वस्वरूप उन्होंने समझा ही नहीं है। यह स्वार्थदृष्टि या लोभदृष्टि जब तक विद्यमान है, तब तक उन्हें महापुरुष या धर्मगुरु की, सेवाभक्ति का वास्तविक लाभ मोक्ष के निकट जाने का, कर्मक्षय करने का लाभ नहीं मिला। यह संसाराभिमुखी दृष्टि है । आचार्य सिद्धसेन ने पार्श्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कल्याण मन्दिर स्तोत्र में कहा है आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि! नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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