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७८ | सद्धा परम दुल्लहा बलपूर्वक रोक लिया और रस्सी से बांधकर बलि देने के स्थान पर लाये । परन्तु ज्यों ही राजा की अंगुली कटी हुई देखी, त्यों ही पुजारी ने उसका बध करने से रोका और कहा-"भग्न अंग वाले व्यक्ति की बलि नहीं दी जा सकती । इसे छोड़ दो।" राजा को छोड़ दिया गया। राजा बहुत प्रसन्न होता हुआ आया। अब उसे मन्त्री की कही हुई बात याद आई । सोचाआज मेरी अंगुली कटी हुई न होती तो मेरा अवश्य ही वध कर दिया जाता । मंत्री ने ठीक ही कहा था कि यह भी शुभ संकेत है। राजा ने मन्त्री की खोज कराई और उसे सम्मानपूर्वक बुलाकर पुनः मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। राजा ने मन्त्री से पूछा- “मन्त्रिवर ! तुम्हारे लिए मेरे द्वारा निष्कासन कैसे शुभ हुआ ?" मन्त्री ने सोचकर कहा--"मेरे लिए यह निष्कासन इसलिए शुभ हआ कि अगर मैं उस दिन आपके साथ होता तो आपके बदले मेरी बलि दे दी जाती।"
संक्षेप में सार यह है कि मनुष्य दुःख और विपत्ति को अमंगलकारी न मानकर उसी में से सम्यग्दष्टि रखकर यथार्थ बोध ले तो वह उसके लिए मंगलकारी एवं शुभ हो सकती है। दुःख और विपत्ति के समय हायतोबा न मचाकर उसे पूर्वकृत कर्मफल समझकर समभाव से सहन करे, धैर्यपूर्वक उसमें से उबरने का उपाय सोचे, तो दुःख और विपत्ति में भी सम्यग्दृष्टि कर्मक्षय करके अपना जीवन मंगलमय बना सकता है।
__भगवान् महावीर अनार्यदेश में पधारे। वहाँ के लोगों ने उन्हें तरहतरह की यातनाएं दीं, भयंकर कष्ट दिये, परन्तु भगवान् ने उन कष्टों और यातनाओं को अपने लिए कर्मक्षयकारक समझकर समभाव से सहन किया। अनार्य लोगों के प्रति मन में जरा भी द्वष या घृणा नहीं लाये । न ही उन पर किसी प्रकार का प्रहार या आक्रोश-रोष किया।
___ यह है दुःख को सुखमय बनाने की कला, विपत्ति को सम्पत्ति में परिणत करने की पद्धति, जो सम्यग्दृष्टि होने पर ही आती है। सम्यक्दृष्टि अमंगलमयी सृष्टि को भी मंगलमयी बना लेता है। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दष्टि के भावों में अन्तर
एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति परिवार में रहता है। परिवार पर जरा-सा दुःख आ पड़ने पर वह घबरा जाएगा, कभी भगवान् को कोसेगा, कभी किसी निमित्त को भला-बुरा कहेगा । वह दुःख की भट्टी में जलता-कुढ़ता रहेगा। हाय-हाय करता हुआ दुःख का वेदन करेगा और प्रतिक्षण आतध्यानवश
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