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________________ दृष्टि बदलिए, सृष्टि बदलेगी | ७७ वहाँ से उठकर चल दिया । एक निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे उसने डेरा माया । रात को वहाँ भी जंगली हिंस्र पशुओं के भयंकर शब्द सुने । मन भयाक्रान्त हो उठा । किसी तरह रात काटी । सुबह पक्षियों का कोलाहल, नंगधडंग जंगली लोगों का आवागमन, तथा आसपास मृत पशुओं की हड्डियाँ, रुधिर और खोपड़ियाँ ! यह देख श्रुतिधर का अन्तःकरण व्याकुल हो उठा । वह वहाँ से चल पड़ा । एक नदी के तट पर आया । शीतल जल के सान्निध्य में थोड़ी-सी सुखानुभूति हुई ही थी कि उसने एक बड़ी मछली को छोटी मछलियों को निगलते देखा । थोड़ी ही देर में एक मुर्दा भी वहाँ तैरता तैरता आ गया | यह देखकर श्रुतिधर का मन घृणा से भर गया । नदी को भी अमंगल समझ उसने सोचा- अब कहां जाया जाए ? ग्राम, नगर, नदी, पर्वत, वन, सर्वत्र अमंगल ही अमंगल है | अतः अमंगल में जीने की अपेक्षा अच्छा है कि इस जीवन का ही अंत कर दिया जाए। वह चिता लगाकर जलने ही जा रहा था कि एक देव ने आकर कहा - यह क्या कर रहे हो ? इस प्रकार जल मरने से तुम्हारे शरीर के मल-मूत्र आदि गंदे पदार्थ बाहर निकलेंगे, तुम अमंगल वातावरण पैदा करके जाओगे, इससे क्या लाभ होगा ? सृष्टि में अमंगल भी है, मंगल भी । किन्तु तुम्हारी दृष्टि मंगलमयी, सम्यक् एवं शुद्ध होगी तो तुम अमंगल में से भी विरक्ति करुणा, सहानुभूति, क्षमा आदि मंगल तत्त्वों को निकाल सकोगे । विपत्ति एवं कष्ट को भी अमंगलमय न मानकर समभाव से सहन करोगे तो उससे तुम्हारी आत्मा मंगलमय बनेगी, तुम आस्रव के बदले संवर की निष्पत्ति कर लोगे । श्रुतिधर को सम्यक् बोध हुआ और वह उसी दिन से अपनो दृष्टि मंगलमयी एवं सम्यक् बनाकर विचरण करने लगा । एक राजा और मन्त्री एक दिन भ्रमण के लिए निकले । अकस्मात् राजा की अंगुली चाकू से कट गई । खून बहने लगा । राजा को पीड़ा हो रही थी । मन्त्री ने आश्वासन दिया। उस पर मरहम पट्टी कर दी और मंगलमय दृष्टि सम्पन्न मन्त्री ने कहा- "महाराज ! बुरा न मानें ! यह भी किसी न किसी अच्छाई के लिए हुआ है ।" राजा यह सुनते ही आगबबूला हो गया और मन्त्री को अपनी सेवा से तथा नगर से बहिष्कृत कर दिया । मन्त्री इसे भी अपने लिए शुभ संकेत मानकर दूसरे गाँव में चला गया । कुछ दिनों बाद राजा अपने सेवकों के साथ कहीं जा रहा था कि वन में एक जगह जंगली लोग चण्डी की पूजा कर रहे थे । उन्हें चण्डी को नरबलि देनी थी । राजा को सर्वलक्षण सम्पन्न एवं वलियोग्य देखकर उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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