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________________ दृष्टि बदलिये, सृष्टि बदलेगी | ७५ व्याकरणशास्त्र भी उसके लिए सम्यक् होंगे। आशय यह है कि यदि व्यक्ति की दृष्टि निर्मल एवं सत्यग्राही हो गई तो उसके लिए चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है । जैसे धूलशोधक रजकणों में से स्वर्णकण ढूंढ लेता है वैसे ही सम्यकद ष्टि-सम्पन्न व्यक्ति मिथ्या कहलाने वाले शास्त्रों में से भी सत्यतत्व ग्रहण कर लेगा। और यदि व्यक्ति की दृष्टि मिथ्या है तो उसके लिए भगवान् महावीर जैसे वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित शास्त्र भी विपरीत रूप से ग्रहण किये जाने के कारण मिथ्याशास्त्र हो जाएंगे। सम्यक्दृष्टि से युक्त मानव अमंगल एवं अपवित्र कहलाने वाले स्थान में रहकर भी मंगलमयी पवित्रता का ग्रहण कर लेगा। वह आस्रव ---- पापास्रववर्द्धक स्थान में भी संवर की वृद्धि कर लेगा । और मिथ्यादृष्टि वाला संवरवद्धक स्थान में भी आस्रववृद्धि कर लेगा। दो मित्र थे। उनकी भावना सैर करने की हुई। उनमें से एक ने कहा-मैं तो आज धर्मस्थान में मुनिराज के प्रवचन सुनने जाऊँगा । दूसरे ने कहा -- 'वहाँ क्या आनन्द आएगा। मैं तो वेश्या की महफिल में जाऊँगा।' दोनों अपने-अपने मनोनीत स्थानों पर पहुँचे । परन्तु धर्मस्थान में जाने वाले, व्यक्ति की दष्टि धूधली थी। अतः उसने विचार किया--मेरा मित्र वेश्या की महफिल में बहुत आनन्द करता होगा। यहाँ रूखी-सूखी नीरस बातों में कोई आनन्द नहीं आता।' अतः उस मित्र ने संवरवर्द्धक धर्मस्थान में भी पापास्रववर्द्धक विचार करके आस्रववृद्धि की । जबकि दूसरे मित्र ने विचार किया-ओह ! कितने गंदे विचार और कार्य हैं, इस वेश्या के ! मैं कहां आ फंसा ऐसे गंदे स्थान में ! मेरा मित्र धर्मस्थान में पवित्र विचार और धर्माचरण की बात सुनता होगा, मैं यहाँ इस वेश्या के रागरंग में अपवित्र विचार सुन रहा हूँ। वेश्या की महफिल में गये हुए मित्र ने अपने विचार संवरवर्द्धक बनाए, क्योंकि उसकी दृष्टि सम्यक् एवं स्पष्ट थी। तात्पर्य यह है कि यदि एक व्यक्ति विषय-वासना और कषायों के प्रवाह में बहकर आचारांग सूत्र पढ़ता है तो वह शास्त्र उसके लिए दृष्टिपरिवर्तन के बिना शस्त्र बन जाता है। इसी प्रकार ब्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र जैसा महत्वपूर्ण तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण शास्त्र भी दृष्टि-परिवर्तन किये बिना पढ़ता है, तो वह उसके लिए अमृत के बदले विष बन सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि यदि पाठक की दष्टि सत्य को सत्य के रूप में देखने को नहीं है, यदि पाठक की दृष्टि में भगवती सूत्र में उल्लिखित तथ्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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