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७४ | सद्धा परम दुल्लहा
कामनाओं का हृदय में रहना ही संसार है। संसार का अर्थ यहाँ दृश्यमान जगत् या परिवार, समाज आदि नहीं है।
___ संसार का रहस्यार्थ है-कर्मों की श्रृंखला या परम्परा का चलते रहना । कर्मों को बांधने के बाद मनुष्य उन्हें भोगता है तो कुछ कर्म अलग हो जाते हैं, किन्तु समभाव से न भोगने पर नये कर्म फिर बांध लेता है, फिर भोगता है। इस प्रकार जब तक दृष्टि सम्यक नहीं होती है, तब तक कर्मबन्धन, फलभोग, पुनः कर्मबन्धन का सिलसिला चलता रहता है । जब तक दृष्टि नहीं बदलती है, तब तक कर्मसृष्टि या जन्म-मरणरूप संसार की परम्परा समाप्त नहीं होती है।
सारांश यह है कि दृष्टि-परिवर्तन प्रत्येक प्रवृत्ति, साधना या तपस्या के पूर्व आवश्यक है । दृष्टि परिवर्तन के बिना एक सम्राट के द्वारा किया गया साम्राज्य-त्याग, कठोर तप, विराट त्याग-प्रत्याख्यान भी व्यक्ति के जीवन में अभिनव ज्योति नहीं जगा सकता, जीवन में उज्ज्वलता नहीं ला सकता । और दृष्टि में परिवर्तन हो गया तो एक छोटा-सा नवकारसी का प्रत्याख्यान भी जीवन को समुन्नत बना सकता है। दृष्टि के सम्यक्-असम्यक् पर श्रुत की सम्यक् असम्यक्ता
नन्दीसूत्र में इसी विषय की एक चर्चा है कि यदि कोई व्यक्ति विषय-वासनओं, संकीर्ण स्वार्थों या कषायों या मिथ्यादृष्टि के वश होकर आचारांग सूत्र, भगवती आदि सम्यक् कहलाने वाले शास्त्रों को पढ़ता है, उसके लिए वे शास्त्र सम्यक् श्रु त नहीं बनते, क्योंकि उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है, इसलिए उन शास्त्रों को वह सम्यक रूप से ग्रहण नहीं कर पाती। और य दि व्यक्ति सम्यक दष्टिसम्पन्न है और आचारांग, भगवती आदि के अतिरिक्त अन्य धार्मिक या अन्यमतीय शास्त्र भी पढ़ता है तो उसके लिए वे शास्त्र भी सम्यक्च त बन जाते हैं । वस्तुतः देखा जाए तो शास्त्र अपने आप में न तो अमत हैं और न ही विष । विष और अमत मनुष्य की दष्टि में रहते हैं। शास्त्रों से सत्य तत्व को ग्रहण करने की बुद्धि या दृष्टि है तो वे शास्त्र उसके लिए अमृतमय हैं !
नन्दीसूत्र में जब यह चर्चा चली कि कौन-से शास्त्र सम्यक् हैं, कौनसे मिथ्या ? तो उन्होंने यही निर्णय दिया कि शास्त्र-पाठक की सर्वप्रथम दृष्टि सम्यक् होगी तो उसके लिए सारे ही शास्त्र सम्यक् होंगे, भले ही वे किसी भी धर्म, पन्थ या मत के हों, यही नहीं, वे काव्यशास्त्र, कामशास्त्र या
१. एयाई चेव समदिठिस्स समत्त परिग्गहत्तेण सम्मसुयं-- नंदीसूत्र
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