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________________ दृष्टि बदलिए, सृष्टि बदलेगो | ७३ अन्तरंग दृष्टि का चमत्कार सम्यगदृष्टिविहीन व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों का उपयोग, ऐसे कार्यों में और इस ढंग से करता है, जिससे उसकी इन्द्रियाँ भी क्षीण होती हैं, वह धर्म एवं पुण्य से भी वंचित रहता है, और उसके आरोग्य को भी हानि पहँचती है। एक सम्यकदृष्टिविहीन आँखों से देखने, कानों से सुनने. हाथों से स्पर्श करने, जीभ से बोलने एवं पदार्थों को चखने, नाक से संघने आदि विषयों में आसक्त होकर एवं अदूरदर्शिता से पापकर्मबन्धन कर लेता है, दूसरा सम्यक् दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति उन्हीं इन्द्रियों से अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में राग, द्वेष, मोह आदि से दूर रहता है, इन्द्रियों का अनावश्यक उपयोग नहीं करता। इसलिए वह कर्मबन्धन के बदले कर्मक्षय कर लेता है, आते हुए कर्मों को भी रोक (संवर कर) लेता है। कभी-कभी उन इन्द्रियों से (बाह्य तथा आभ्यन्तर) तपस्या करके वह कर्मों की निर्जरा भी कर लेता है। अतः अन्तरंग दृष्टि का भी परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा हजारों वर्षों तक तप करने, कष्ट सहने या बहुत ही प्रवृत्ति करने पर भी कर्मक्षय नहीं होता, व्यक्ति मोक्षाभिमुख नहीं होता; वह संसारोन्मुख ही रहता है, उसका संसार घटता नहीं, बढ़ता ही है। दृष्टि सम्यक् होने पर ही तप था आचार की सृष्टि सम्यक् आपने सुना है, नरक और तिर्यंचगति में प्राणी घोर कष्ट सहता है, भूख-प्यासा भी रहता है, तीव्र वेदना भी सहन करता है। परन्तु उन सवको हम तपःसाधना नहीं कहते, इसी प्रकार घोर जंगल में रहकर पंचाग्नि तप करने, बहुत काल तक भूखे प्यासे रहने को भी हम मोक्षाभिमुखी साधना नहीं कहते क्योंकि वह घोर कष्ट सहन एवं तीव्र वेदनासहन सम्यकदृष्टि से नहीं हुई, इसलिए उससे कर्मक्षय भी नहीं हुआ और न कर्म आते हुए रुके। इसी प्रकार वह तपस्या भी, या आचार पालन भी कर्मक्षय-कारक नहीं, जिसके पीछे आत्म शुद्धि का या वीतरागता प्राप्ति का लक्ष्य न हो अर्थात् दृष्टि सम्यक न हो। प्रसिद्धि, लौकिक कामना, प्रशम या लौकिक-पार लौकिक फलाकांक्षा आदि संकीर्ण स्वार्थों से भरी तपस्या या आचार-साधना संसारोन्मुखी है, वह कर्मक्षयकारिणी या मोक्षाभिमुखी नहीं है । रागद्वेषादि की तीव्र परिणति ही संसार है । कहा भी है कामानां हृदये वासः संसारः परिकीर्तितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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