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________________ संकल्पशक्ति के चमत्कार | ५६ सन्निकट रहकर भी कामवेग से बिलकुल निलिप्त रहना, अत्यन्त दुष्करतर कार्य था। जिसमें मुनि स्थूलभद्र ने पूर्ण सफलता प्राप्त थी। जिस कोशा वेश्या के यहाँ वे दीक्षा से पूर्व १२ वर्ष तक कामासक्त बनकर रहे, उसी वेश्या के यहाँ कामवासना से सर्वथा अलिप्त बनकर उन्होंने चौमासा बिताया, इतना ही नहीं, कामासक्त वेश्या को भी धर्मानुरक्त बना दिया, इसके पीछे मुनि स्थूलभद्र का प्रबल संकल्पबल ही कारण था। दूसरा निर्बल संकल्प वाला या संकल्पहीन व्यक्ति होता तो वेश्या के एक ही कटाक्ष पर स्खलित हो जाता, और ऐसा हुआ भी। स्थूलभद्र मुनि का गुरुभाई भी ईर्ष्यावश उक्त वेश्या के यहाँ चातुर्मास बिताने आया था, लेकिन वह काम-पराजित हो गया था। उत्कृष्ट संकल्पशक्ति की साधना क्रियाशक्ति में तन्मयता को प्रतिष्ठित करना ही उत्कृष्ट संकल्प है । जैसे कोई व्यक्ति किसी कार्य को सिद्ध करने के लिए कहता है---'यह मेरा संकल्प है, उसका अभिप्राय यह हआ कि मैं अपने प्राण, मन एवं मस्तिष्क की समग्र शक्ति के साथ अब इस कार्य में संलग्न हो रहा हूँ। इस प्रकार की वैचारिक दृढ़ता एवं कार्य में निष्ठा तथा तन्मयता ही प्रखर संकल्पशक्ति बनती है। जिन निश्चयात्मक विचारों से मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव पड़ता है, अन्तःकरण पर अमिट छाप अंकित हो जाती है, उन्हीं विचारों की मंत्र तरह बार-बार पुनरावृत्ति करने से वे प्रबल शक्तिशाली होकर स्वभाव के अंग बन जाते हैं, रोम-रोम में रम जाते हैं; उसकी नस-नस में उन विचारों के संस्कार जड़ जमा लेते हैं, उसके अन्तर्मन में वे गाढ़रूप से बद्धमूल हो जाते हैं । जैनशास्त्रों में ऐसे श्रमणोपासक या श्रमण के लिए शास्त्रकार ने उद्गार प्रकट किये हैं-- ___ 'अट्ठि-मिज-पेमाणुरागरत्ते' इसका भावार्थ है-उसकी हड्डियाँ और मज्जातन्तु वीतरागदेव, सद्धर्म, सद्गुरु के प्रति प्रीति और अनुराग से रंग गए थे। इस प्रकार का संकल्पतभी प्रखर होता है, जब सारी मानसिक चेष्टाएँ, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियाँ एक ही लक्ष्य की ओर लग जाती हैं। साथ ही कार्यसिद्धि की भी तीव्र इच्छा होती है, और उस कार्य को पूरा करने की भूख अन्तरात्मा से उठती है, तथा उसके पीछे दशविध बलप्राण लग जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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