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________________ ५० | सद्धा परम दुल्लहा भावार्थ यह है कि यह मानवरूपी कतरा (बूंद) वास्तव में वहरे बेपायां' (असीम सागर) है। आशय यह है कि मनुष्य वस्तुतः असीम शक्ति और अपरिमित बल का स्वामी है, किन्तु अधिकांश मानव अपने इस सामर्थ्य से परिचित नहीं होते, अपने आत्मबल पर अपने शरीर में निहित महान् शक्तियों पर इसलिए भरोसा नहीं करते कि वे अपने भीतर के महान् पुरुष (आत्मा) को नहीं पहचानते । वे अपनी बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों से काम नहीं लेते, वे चिन्तन-मनन नहीं करते, अपनी योग्यताओं को प्रगट नहीं करते। बहत-से लोग अपनी निर्माणात्मक क्षमताओं से परिचित नहीं होते, इसलिए वे स्वयं को भाग्यहीन, अयोग्य एवं हीन समझ बैठते हैं, और परम्परा से प्राप्त गुण सम्पदा या संयोग से मिले साधन पर ही संतोष करके बैठ जाते हैं । इस प्रकार विचारों की तुच्छता, दृष्टि की क्षुद्रता, आत्मशक्तियों की अनभिज्ञता एवं हीनभावना आत्मविश्वास के लिए घातक विष के समान निष्कर्ष यह है कि अपनी वास्तविकता से परिचय (आत्मपरिचय) अथवा आत्मज्ञान के बिना वह अपनी योग्यता, क्षमता और सामर्थ्य पर कभी विश्वास नहीं कर सकता, और इस प्रकार के आत्मविश्वास के बिना वह किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए सिर-धड़ की बाजी नहीं लगा सकता। आत्मविश्वासहीन व्यक्ति दयनीय और दुःखद स्थिति में थामस ग्रे' अपनी विख्यात कविता में उन मोतियों के भाग्य पर खेद प्रगट करता है, जो अपनी चमक-दमक दिखाये बिना ही समुद्र के गर्भ में पड़े रहते हैं और उन फूलों के नसीब पर आँसू बहाता है, जो बिना खिले ही मुझ जाते हैं। इसी प्रकार की, या इससे भी अधिक दयनीय और दुःखद स्थिति उन लोगों की है, जो सब कुछ करने की क्षमता रखते हुए भी अपने पर विश्वास नहीं करते । इसलिए न तो वे अपनी योग्यता से स्वयं लाभ उठाते हैं और न ही मानवजाति की कुछ सेवा ही कर पाते हैं । कारण, वे अपनी वास्तविकता से परिचित नहीं हैं । वे स्वयं को पहचान भी कैसे सकते हैं, जबकि उन्हें अपनी आत्मा पर भरोसा नहीं है, वे अपने बाहुबल एवं मनोबल से काम लेने के लिए तैयार ही नहीं हैं। आत्मशक्तियों के प्रति अविश्वासी व्यक्ति की शक्तियाँ कुण्ठित 'विलियम जेम्स' का यह कथन गलत नहीं है कि सामान्यतया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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