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४० । सद्धा परम दुल्लहा
बुद्धि और क्रिया भी श्रद्धा की अनुगामिनी होती हैं। एक-सी क्रिया और एक-सी बुद्धि अन्तःकरण द्वारा विभिन्न दिशाओं में श्रद्धा का प्रयोग होने पर वह आकाश-पाताल जितना अन्तर उपस्थित कर देती है। वह अन्तर विभिन्न श्रद्धा के परिणामों का होता है। अम्बपाली की बुद्धि जब तक रूप सौन्दर्य की अधिकाधिक प्रशंसा प्राप्त करने में जीवन को सार्थकता समझती थी, तब तक वह नगरवधू थी, वही बुद्धि, वही गतिशीलता और सुन्दरता जब सत्श्रद्धा के साथ जुड़ गई तो उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। वह धनवैभव के बदले आत्मवैभव को, रूप-सौन्दर्य के बदले आत्मिक सौन्दर्य को वास्तविक उपादेय मानने लगी। रत्नाकर डाकू की श्रद्धा बदल गई तो वह महाकवि बाल्मीकि बन गया । प्रदेशी राजा एक दिन घोर नास्तिक और क्रूर था, लेकिन जब उसके अन्तःकरण में सत्श्रद्धा उत्पन्न हुई तो महान् धर्मिष्ठ बन गया और सूर्यकान्ता रानी द्वारा भोजन में दिये गये विष को भी सहर्ष पी गया । वस्तुतः श्रद्धा ही आन्तरिक व्यक्तित्व को जन्म देने वाली, उसके स्वरूप को निर्धारित-विकसित करने वाली दिव्य जननी है। तात्पर्य यह है कि किसी का व्यक्तित्व कैसा है, क्या है ? इसे जाननेसमझने का एक ही उपाय है-- उस व्यक्ति की श्रद्धा का स्तर जानना। व्यक्ति की स्थिति या व्यक्तित्व श्रद्धा से जुड़ा हुआ है । अतः श्रद्धा व्यक्तित्व की आदिशक्ति है, और विश्वास परम शिव (महादेव) है। श्रद्धा और विश्वास इन दो बीजों का ही विकसित रूप व्यक्तित्व वृक्ष है। अध्यात्म मार्ग में उपादेय : सत्श्रद्धा धेनुसम
गीता में श्रद्धा के तीन स्तर बताए गए हैं-सात्विक, राजस और तामस । राजस और तामस श्रद्धा सत्श्रद्धा नहीं है, अध्यात्म मार्ग के लिए उपादेय नहीं है । अतएव 'रामचरितमानस' में सात्विक श्रद्धा को सुन्दर गाय बताया है-- 'सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई' । यह गाय जप, तप, व्रत, यम-नियम आदि चारा ही खाती है जो हरा, ताजा और खाने लायक हो। श्रद्धारूपी गौ का दूध भावरूपी बछड़े को पाकर निर्मल मन रूपी बर्तन में दुहा जाता है। अतः श्रद्धारूपी गाय को दुहने के लिए भावयुक्त यमनियम, क्रिया आदि की आवश्यकता है। भावविहीन जप-तप, नियमक्रियाकाण्ड आदि करने वालों के द्वारा श्रद्धारूपी गाय नहीं दुही जा सकती, उसमें धर्मरूपी दूध नहीं मिल सकता।
श्रद्धा शक्ति है। बिना शक्ति के शिवरूपी शुद्ध आत्मा शव है।
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