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________________ आत्मिक प्रगति की जननी : सत्श्रद्धा ! ४१ इसीलिए जैनशास्त्रों में 'सद्धा परम दुल्लहा' --'श्रद्धा परमदुर्लभ' बताई गई है। भावों से परमात्मा में आरोपित श्रद्धा का चमत्कार तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा आज हमारे समक्ष प्रत्यक्ष नहीं हैं। परन्तु उनकी पूजा-अर्चा या उपासना-आराधना करनी हो तो भाव से तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा का अन्तःकरण में ध्यान करके उनमें सत्श्रद्धा आरोपित की जाती है। उनमें आरोपित की गई श्रद्धा प्रतिध्वनित और प्रतिफलित होकर साधक के पास वापस लौट आती है। जैसे गेंद को दीवार या धरती पर मारने से टकरा कर वह वापस उसी स्थान को लौटती है, जहां से उसे फेंका गया था। गुम्बज, कूप, या पहाड़ के पास की हुई आवाज गूंजती है, प्रतिध्वनित होकर वापस उच्चरित स्थान पर आती है । इसी प्रकार परमात्मा, गुरु एवं धर्म के प्रति भाव से की गई श्रद्धा प्रतिध्वनित एवं प्रतिफलित होती है। यह श्रद्धा की शक्ति का चमत्कार है । देवता या परमात्मा का निवास काष्ठ या पाषाण आदि में नहीं होता, किन्तु भावों में ही होता है। कहा भी है'भावे हि विद्यते देवस्तस्माद भावो हि कारणम् । अतः भावपूर्वक श्रद्धा होने से उसका प्रतिफल अवश्य मिलता है । सत्श्रद्धा को विकसित करने के लिए भाव ही माध्यम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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