________________
आत्मिक प्रगति की जननी : सत्श्रद्धा | ३६
श्रद्धा और विश्वास : शक्ति और शिव
श्रद्धा की उपलब्धि एक प्रकार से परमात्मा की उपलब्धि कही जा सकती है । ईश्वरानुभूति के अन्य साधन उतने सफल नहीं होते, जितनी श्रद्धा की प्रगाढ़ता।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'रामचरितमानस' के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहा
'भवानी शंकरी
वन्दे,
श्रद्धा-विश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति, सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥'
मैं उन श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर को वन्दन करता हूँ जिनके ( श्रद्धा और विश्वास के ) बिना अन्तःकरण में स्थित परमात्मा सिद्धजन नहीं देख सकते हैं ।
वस्तुतः श्रद्धा और विश्वास अन्तःकरण की शक्तियाँ । जिसे वैदिकदर्शन कारणशरीर और जैनदर्शन कार्मणशरीर कहता है । क्योंकि भावसंवेदनाओं का क्षेत्र, श्रद्धा का स्रोत इसी स्थल में है । व्यक्तित्व को हिला डालने वाली, मनुष्य में अद्भुत सहनशक्ति, विराट् कार्यक्षमता पैदा करने वाली यही है ! अन्तःकरण की प्रतिमूर्ति या प्रेरणा ही जीवन दिशा का निर्धारण करती है। इसी को मानव के अन्तःकरण में स्थित साक्षात् परमात्मशक्ति के रूप में माना गया है ।
उल्लसित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण पूर्णतया सत्श्रद्धा के हाथ में । भूत, भविष्य और वर्तमान की सुखद सम्भावनाओं का निर्माण श्रद्धा के द्वारा ही सम्भव होता है । जो आचरण में, संकल्प के रूप में व्यक्त न हो, प्रखर भावनाओं का जनक न बने, वह सत्श्रद्धा नहीं हो सकती ।
जैसी जितनी श्रद्धा, वैसा उतना ही व्यक्तित्व जैसे बीज ही वृक्ष बनता है, वैसे ही श्रद्धा के जैसे बीज अन्तरात्मा डाले जाते हैं, वैसा ही मनुष्य का व्यक्तित्व रूपी वृक्ष बनता है । मनुष्य जो कुछ बनता है, जो कुछ पाता है, वह समग्र निर्माण श्रद्धा-शक्ति के चमत्कार के सिवाय और कुछ नहीं है । गीताकार ने इसी तथ्य की ओर
करते हुए कहा है
'श्रद्धामयोऽयं पुरुषः, यो यच्छुद्धः स एव सः'
यह पुरुष श्रद्धामय है । जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org