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३८ / सद्धा परम दुल्लहा
इसका भावार्थ यह है कि श्रद्धा द्वारा आत्मज्ञान की अग्नि प्रदीप्त की जा सकती है। श्रद्धा द्वारा हविष्यान्न का हवन किया जाता है, अर्थात्आत्मसत्ता को परमात्मसत्ता में व्यूसर्ग (अप्पाणं वोसिरामि) किया जाता है । श्रद्धा भग अर्थात्-ऐश्वर्य (ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान एवं वैराग्य) आदि वालों के मस्तिष्क में निवास करती है । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा का इन पर नियंत्रण होता है । श्रेयःसाधक में सर्वप्रथम श्रद्धा ही प्रबल होती है। तत्पश्चात क्रियाशीलता आती है। श्रद्धा : आत्मा को उत्कृष्टतादात्री जननी
निष्कर्ष यह है कि मानव-जीवन में सबसे बडो, सबसे समर्थ शक्ति श्रद्धा है । इसी को व्यक्ति की मनःस्थिति का सृजन करने वाली बताया गया है । शरीर को जन्म तो माता-पिता के प्रयत्न से मिलता है, परन्तु आत्मा को उत्कृष्टता मिलती है, श्रद्धा और विश्वासरूपी जननी-जनक की अनुकम्पा से । इसीलिए योगदर्शन के व्यासभाष्य में लिखा है
'सा (श्रद्धा) जननीव कल्याणं योगिनः पाति।' वह श्रद्धा माता के समान योगी के कल्याण की सुरक्षा करती है। श्रद्धा के बल पर बलिदान
___ श्रद्धा के बलबूते पर ही वीतराग-प्ररूपित धर्म के अनुयायी अथवा मोक्षमार्ग के पथिक देव-गुरु-धर्म के लिए हँसते-हँसते प्राणों का बलिदान दे देते हैं। धर्म पर अटूट श्रद्धा के कारण ही कामदेव श्रमणोपासक देवता द्वारा इतने कष्ट और संकट उपस्थित करने पर भी धर्म पर अटल रहा । महाशतक श्रावक अपने व्रत, नियम और धर्म पर डटा रहा । विश्व के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं । ईसामसीह ईश्वर पर अटल श्रद्धा के कारण प्रसन्नतापूर्वक क्रूस पर लटक गए । सुकरात जैसे सत्यधर्म पर अखण्ड श्रद्धालु श्रद्धा के बल पर ही हँसते-हँसते जहर का प्याला पी गए। श्रद्धाहीन एवं श्रद्धायुक्त साधना का अन्तर
आध्यात्मिक क्षेत्र की उच्चस्तरीय साधनाओं में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है। श्रद्धाहीन क्रियाकाण्ड या धर्माचरण, जपतप, अर्चा-पूजा आदि अंग-संचालन के व्यायाम के समान यत्किचित् लाभदायक हो सकते हैं, किन्तु वे ही श्रद्धा के आधार पर लक्ष्य सिद्धि में सहायक सिद्ध होते हैं।
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