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________________ आत्मिक प्रगति की जननी : सत्श्रद्धा | ३७ किन पर श्रद्धा, किन पर अश्रद्धा ? आशय यह है कि श्रद्धा सत् तत्त्व के प्रति ही सघन होती है, असत् के प्रति नहीं। जहाँ भी श्रेष्ठता एवं पूज्यता का समावेश होता है, वहीं श्रद्धा टिकती है, अन्यत्र नहीं । इसलिए श्रद्धा से तात्पर्य उन मंगल भावनाओं या आस्थाओं से है, जो इष्टदेव (देवाधिदेव), धर्मगुरु एवं उत्कृष्ट मंगलमय धर्म के प्रति पूज्यभाव एवं सघन आत्मभाव बनाए रखती है। परम आप्त महापुरुषों के वचनों पर विश्वास करके उनके द्वारा उपदिष्ट मोक्ष पथ पर अबाधगति से चल पाना सत्श्रद्धा से ही सम्भव हो सकता है। जिनके प्रति श्रद्धा के भाव नहीं होते, उनके कथन पर विश्वास कर पाना या उनके द्वारा बताये मार्ग पर चल पाना असम्भव प्रतीत होता है । वास्तव में, वस्तुस्थिति से अवगत होने पर श्रष्ठता के भ्रम में उसके प्रति पाल-पोसी हुई श्रद्धा अश्रद्धा में बदल जाती है । श्रेष्ठता का पाखण्ड या आडम्बर ज्यों हो ध्वस्त होता है, त्यो हो वह अपने साथ श्रद्धा को भी विनष्ट कर देता है । आत्मापरमात्मा आदि के प्रति श्रद्धा न डिगने का कारण है-उनके अस्तित्व एवं उनके द्वारा विश्व पर किये हुए महान् उपकार या अनुग्रह के प्रति तनिक भी शंका का न होना। जिनके मन में सन्देह या अविश्वास रहता है, उनकी श्रद्धा भी परमोपकारी परमात्मा, गुरुदेव या सद्धर्म के प्रति गहन नहीं हो पाती। प्रगाढ़ सत्श्रद्धा के चमत्कार प्रगाढ़ श्रद्धा तो मिट्टी में भी, विष में भी और शूली में भी परमात्मा के दर्शन करा देती है । मिट्टी के द्रोणाचार्य के प्रति अटूट श्रद्धा ने एकलव्य को धनुर्विद्या में पारंगत कर दिया। भक्तिरस में निमग्न मीरा ने राणा के द्वार जहर का प्याला पीने को दिये जाने पर उसे श्रीकृष्ण का चरणामत होने की अटूट श्रद्धा से पी लिया तो वह विष भी अमृत बन गया। सेठ सुदर्शन की अर्हन्त प्रभु के प्रति परमश्रद्धा के कारण शूली भी सिंहासन बन गई थी। धधकती अग्नि ज्वाला को परमात्मा (नृसिंहरूप) की गोद समझकर उसमें बैठने की प्रह्लाद की परमश्रद्धा के कारण अग्नि भी उसे जला न सकी। परमात्मा के प्रति अटूट श्रद्धायुक्त समर्पण ने द्रौपदी को निर्वस्त्र न होने दिया, अपितु उसका पहना हुआ वस्त्र बढ़ता ही गया। ये सब सत्श्रद्धा के ही चमत्कार कहे जा सकते हैं। ऋग्वेद (१०/१५११) में कहा गया है .... "श्रद्धयाऽग्निः समिध्यते, श्रद्धया हूयते हविः । श्रद्धया भगस्य मूर्धनि, वचसा वेदयामासि ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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