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३४ | सद्धा परम दुल्लहा
रही बात तर्क की या प्रत्यक्ष की ! तर्क तो एक पत्थर है, उसे कहीं भी फिट किया जा सकता है। और प्रत्यक्ष"? इन्द्रिय-प्रत्यक्ष कभी पूर्ण सत्य नहीं होता। कभी-कभी जो दीखता है, जो सुना जाता है, वह झूठ होता है, और जो सच है वह अनदेखा, अनसुना ही रह जाता है।।
श्रीमद् राजचन्द्र ने एक बार कहा था- "मैं तर्क से, युक्ति से चाहूँ तो सभी शास्त्रों का खण्डन कर सकता हूँ, पर ऐसा करने से लाभ कुछ भी नहीं । मेरा और अनेक प्राणियों का अनन्त संसार हो बढ़ेगा। अनेक भव्य, भद्र प्राणी सत्यमार्ग से भटक जाएंगे। इससे असत्य की पूजा बढ़ेगी। अनाचार की प्रतिष्ठा होगी।" समाज में राष्ट्र में, सदाचार की, नैतिक मुल्यों की, प्राचीन सांस्कृतिक और धामिक मर्यादाओं की प्रतिष्ठा तभी तक रहेगी जब तक हम उनके प्रति आस्थावान हैं, श्रद्धाशील हैं। . इसलिए 'श्रद्धा' केवल धार्मिक जगत में ही नहीं किन्तु सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण है, आवश्यक है ।
कुछ लोग कहते हैं कि श्रद्धा की आँख नहीं होती, पर ऐसी श्रद्धा अंधश्रद्धा है। मैं ऐसी अन्धश्रद्धा का पक्षपाती नहीं हैं। श्रद्धा में विवेक की, सम्यक्त्व को आँख होनी हो चाहिए। जिस श्रद्धा में सम्यक्त्व की आँख है, वही वास्तव में श्रद्धा है, उसे ही जैन दर्शन में सम्यक् श्रद्धा कहा है, और ऐसी सम्यक्श्रद्धा ही जीवन में परम दुर्लभ है-उसो के लिए भगवान् महावीर ने कहा है -
सट्टा परम दुल्लहा
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