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________________ सद्धा परम दुल्लहा | ३३ धीरे उसको आस्था की जड़े हिलने लगीं। जिस विश्वास पर वह आदर्श साधुजीवन की कठोर चर्या का पालन कर रहा था वह विश्वास का आधार हिल उठा । हमने देखा, धीरे-धीरे उसका जीवनक्रम बदलने लगा। आचार, मर्यादा में शिथिलता आने लगी। श्रमण-जीवन की उसकी आस्था बदल गई, उसके नैतिक मूल्य भी बदल गये। जिन कार्यों का उसने जीवन के प्रारम्भ में त्रिकरण-त्रियोग से त्याग किया था। धीरे-धीरे उनका सेवन करने लगा । परिणाम यह हुआ कि बचपन और जवानी में कठोर श्रमणधर्म की आराधना करने वाला विद्वान संत बुढ़ापे में आते-आते उन मर्यादाओं को तोड़कर गृहस्थों के समान सुख-सुविधाभोगी बन गया। मैं जब देखता हूँ -- यह परिवर्तन क्यों आया? तो लगता है श्रद्धाहीनता का ही यह परिणाम है। पहले दिन विज्ञान की आड़ लेकर उसने शास्त्रों की प्रामाणिकता पर तर्क उठाये। दूसरे दिन युग-प्रवाह और धर्म प्रचार की आड़ लेकर आचार-मर्यादाओं को ताक पर रख दिया और वह श्रमण गृहस्थों से भी अधिक सुविधाभोगी बन गया। क्योंकि उसकी आचारमर्यादा का आधार टूट गया, उसकी आस्था डगमगा गई । अव उसको श्रमण-आचार व्यर्थ का क्रिया-काण्ड प्रतीत होने लगा। श्रद्धाहीन व्यक्ति जीवन में कहाँ तक गिरेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। भर्तृहरि के एक श्लोक का अंश है-- भवति विनिपातो शतमुखः ---श्रद्धाहीनों के लिए यही कहा जा सकता है। मैं यह नहीं कहता कि शास्त्र के प्रति आप तर्क ही न करें। किन्तु तर्क की एक सीमा है। तर्क से आप सत्य को भी खंडित कर सकते हैं। झूठे को सच्चा और सच्चे को झठा सिद्ध करने वाली वकीलों की दलीलें न्यायालय में चल सकती हैं। यदि धर्म-क्षेत्र में इनका सहारा लिया गया तो फिर सत्य का दीपक सिर्फ काजल उगलेगा, प्रकाश नहीं दे पायेगा। फिर विज्ञान तो एक प्रयोग है, और प्रयोग कभी भी अन्तिम सत्य नहीं हो सकता । विज्ञान जिसे आज सत्य कह रहा है, कल उसे ही असत्य सिद्ध करने में उसे कोई आपत्ति नहीं होगी। न्यूटन का विश्वमान्य गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी आज वैज्ञानिकों के लिए फिर से विचारणीय बन गया है। वे सोच रहे हैं यह सिद्धान्त भी सृष्टि में सब जगह समान रूप से लागू नहीं हो पा रहा है। विज्ञान का क्षेत्र, विज्ञान की सीमा और विज्ञान की परिभाषाएँ हमेशा बदलती रही हैं। उनको अन्तिम सत्य मानकर परम्परागत शास्त्रों को असत्य सिद्ध करने का प्रयास तो एक मूर्खता है, हठवादिता है । सच्चा वैज्ञानिक कभी हठवादी नहीं होता। विज्ञान का अधूरा जानकर ही उसकी पूंछ पकड़कर घिसटता जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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