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________________ ३२ | सद्धा परम दुल्लहा हो गया। आत्मा के विषय में उनको संदेह हुआ। अब आत्मा नहीं, तो पुनर्जन्म किसका ? पुनर्जन्म नहीं तो पुण्य-पाप का क्या फल होगा ? पुण्यपाप का कोई फल नहीं तो फिर शरीर को कष्ट देकर तपस्या, साधना, अहिंसा-पालन आदि सब किसलिए किया जाय? मतलब यह है कि श्रद्धा लडखडाते ही सम्पूर्ण जीवनक्रम लड़खड़ा उठा, साधना की आधारभूमि हिल उठी। और इसका फल हुआ--आचार्य आषाढ़भूति भौतिक सुखों के लिए धनसंग्रह करने में जुट गये और धन-संग्रह के लिए ६ मासूम बालकों की हत्या करके उनके जेवर लूटकर अपनी झोली में भरने लगे । साधु के प्रति श्रद्धा भाव से दर्शन करने आये निर्दोष बालकों को मारकर उनके शव जंगल में फेंक देना और जेवर से अपनी झोली भर लेना कितना नीच और घृणित कृत्य है यह ! व्यक्ति धर्म से तो गिरता ही है, नैतिकता, मानवता से भी गिरकर दानव वन जाता है। कब? जब वह श्रद्धाहीन हो जाता श्रद्धाहीन के लिए कोई नैतिक मूल्य नहीं है, कोई मानवता नहीं है। कोई आचार मर्यादा नहीं है। क्योंकि किसी भी मूल्य के प्रति उसकी आस्था एवं श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धाहीन क्या नहीं कर सकता यह आषाढ़भूति के चरित्र से प्रकट होता है। श्रद्धा व्यक्ति की नैतिकता की प्रहरी है। आचार मर्यादा की रक्षक है। बड़े से बड़े संकट, परीषह और उपसर्ग से जूझने की शक्ति श्रद्धा से प्राप्त होती है । श्रद्धा सम्बल है, पाथेय है, कठिन से कठिन यात्रा पूरी करने के लिए । कष्टों की अंधियारी रात में चलने के लिए श्रद्धा दीपक वर्तमान का एक उदाहरण मेरे सामने है। एक व्यक्ति ने श्रमणदीक्षा ग्रहण की। जीवन में अनेक कष्ट, परीषह आये, वह हँसते-हँसते सहता गया। प्राणों पर खेलने वाले प्रसंग भी आये पर वह व्यक्ति उनमें पर्वत की भांति अडिग रहकर सब कुछ झेलता गया, उच्च साधु आचार के प्रति समर्पित होकर । वह श्रमण शास्त्रों का विद्वान था, उत्कृष्ट प्रवक्ता भी था, समाज में उसकी विद्वत्ता की, ज्ञान की, प्रवचन की, लेखन की धाक थी, सर्वत्र सम्मान, प्रतिष्ठा और पूजा मिलती रही। अचानक उसकी श्रद्धा में एक तूफान उठा। भूगोल-खगोल की सामान्य विज्ञान की बातों को लेकर उसे शास्त्रों की प्रामाणिकता में सन्देह हआ। शास्त्रों को भगवद् वाणी मानने के प्रति उसने शंका उठाई। धीरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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