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सद्धा परम दुल्लहा | ३१
से पन्तया अक्वयसागरे वा - वे प्रज्ञा के अक्षय सागर थे आदि । (सूत्रकृतांग ६ वीरस्तुति)
किन्तु इससे यह तथ्य ओझल नहीं किया जा सकता कि वे महान् श्रद्धावादी भी थे । 'सद्धा परम दुल्लहा' को उच्चारित कर उन्होंने श्रद्धा को परम दुर्लभ स्वीकार किया है। उन्होंने तर्क करने वालों को- प्रत्यक्षवादियों को बार-बार चेताया है-
अदक्खु, व दक्खु वाहियं सद्दहं सु ।
- सूत्र० २ / ३ / ११ नहीं देखने वालो, तुम देखने वालों की बात पर विश्वास करके चलो | यदि विश्वास नहीं है, श्रद्धा नहीं है तो तुम्हें ज्ञान भी प्राप्त नहीं हो सकता ।
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नादंसणिस्स नाणं
-- उत्त० ३२
श्रद्धाहीन को ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता । वेदों में भी कहा है
श्रद्धा सत्यमायते
श्रद्धा की पवित्र आँख से ही सत्य के दर्शन हो सकते हैं ।
- यजुर्वेद १९/३०
श्रद्धावल्लभते ज्ञानम्
(गीता० ४ / ३६)
श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है। श्रद्धाहीन ज्ञानी भ० महावीर की भाषा में अज्ञानी है, मूढ है ।
भगवान महावीर ने ज्ञान को महत्व दिया है, प्रज्ञा की प्रधानता मानी है, इससे कोई इन्कार नहीं हैं; किन्तु यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी प्रज्ञा, उनका ज्ञान श्रद्धा से समन्वित है। श्रद्धाहीन ज्ञान नहीं अज्ञान है । श्रद्धाहीन प्रज्ञा दुष्प्रज्ञा है । फिर दूसरी बात -
पन्ना समिक्खए धम्मं - प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करके ही धर्म की पहचान करने की है । किन्तु धर्म की पहचान करने मात्र से तो मुक्ति या वीतरागता नहीं मिल जायेगी । मुक्ति के लिए फिर श्रद्धा की जरूरत होगी, इसलिए कहा है
सद्धाखमं णे विणइत्त रागं
- उत्तरा० १४/२८
श्रद्धा ही हमें राग से मुक्ति दिलाने में समर्थ है । श्रद्धा ही वह शक्ति है जो वीतराग बना सकती है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में आचार्य आषाढ़भूति का कथानक आता है । आषाढ़भूति संघ के आचार्य थे, विद्वान तो थे ही, किन्तु अचानक एक दिन उनका मन शंकाकुल
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