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________________ २० | सद्धा परम दुल्लहा नदीनां शस्त्रपाणिनां, नखिनां शृंगिणां तथा । विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ।। सामान्यतया नदियों, शस्त्रधारियों, तीखे नख वालों, बड़े-बड़े सींग वाले पशुओं का तथा स्त्रियों एवं राजपरिवारों (वर्तमान में राजनीतिज्ञों) पर विश्वास नहीं करना चाहिए। इस श्लोक में उल्लिखित निर्जीव-सजीव वस्तुओं पर सामान्यतः सहसा विश्वास न करने की बात ठीक हो सकती है, परन्तु विशेषतया आपवादिक रूप से इन सभी पर विश्वास किया भी जा सकता है। जो नदियाँ गहरी नहीं होतीं, उन्हें लोग पार करते भी हैं, इसी प्रकार जो महिलायें मिष्ठ हैं, वात्सल्यमयी हैं, माताएँ हैं या मातृतुल्य हैं, वे अविश्वसनीय नहीं हो सकतीं। इसी प्रकार जो शस्त्रधारी जनता की सुरक्षा के लिए तैनात होते हैं, वे भी अविश्वासयोग्य नहीं होते । जो नख या सींग वाले पशु पालतू होते हैं, वे वफादारी के साथ मालिक की सेवा करते हैं, उन पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता । अतः विश्वसनीय तत्वों का भलीभाँति विवेक करके मनुष्य को अपनी जीवनयात्रा सुखद, सरल, निश्चिन्त, निरापद तथा निराबाध बनानी चाहिए। श्रद्धेय त्रिपुटी पर घोर अविश्वास दुर्भाग्य की बात यह है कि वर्तमान युग में पापकर्म और अधर्म, अधार्मिक आदि चविश्वसनीय तत्त्वों पर लोगों का विश्वास बढ़ता जा रहा है, किन्तु जो श्रद्धय एवं परम विश्वसनीय तत्त्व हैं -देवाधिदेव, गुरु या धर्मोपदेशक निर्ग्रन्थ साधूवर्ग एवं सत्य-अहिंसा आदि सद्धर्म, इन पर से विश्वास उठता जा रहा है। इन तीन श्रद्धेय तत्त्वों पर से इस प्रकार विश्वास उड़ता जा रहा है, जिस प्रकार बल्ब का फ्यूज उड़ जाता है । विश्वसनीय सद्धर्म पर अविश्वास जिस अहिंसा, सत्यादि सद्धर्म का सेवन करने से व्यक्ति सदाचारी बन सकता है, व्यवहार में प्रतिष्ठित होकर रह सकता है, जिस सद्धर्म के उपदेश के बल पर तृष्णा पर अंकुश लगाकर, लालसा को नियन्त्रित करके, इच्छाओं को सीमित करके मनुष्य अपने जीवन को शान्त, उदार, परोपकारी एवं सेवामय बनाकर संसार के समस्त प्राणियों को, विशेषतः मनुष्यों को अपना आत्मीय बना सकता है, जो सद्धर्म मनुष्य को ओजस्वी एवं तेजस्वी बनाने हेतु ब्रह्मचर्य का पालन एवं वीर्य का सरक्षण करने की प्रेरणा देता है, जो सद्धर्म सत्य-अहिंसा का पाठ पढाकर मनुष्य को उदार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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