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________________ सफलता का मूलमंत्र : विश्वास | १६ माता-पिता आदि लौकिक आप्त पुरुषों पर विश्वास किया जाता है, उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में वीतराग, सर्वज्ञ, लोकोत्तर आप्त पुरुषों तथा उनके अनुगामी वीतराग पथ के पथिक धर्म-धुरंधर महाव्रती साधु-साध्वियों पर विश्वास किया जाता है। ___कभी-कभी अज्ञानी, स्वार्थी और मतान्ध लोग भोले-भाले लोगों को विश्वास के नाम पर अन्धविश्वास में धकेल देते हैं, कई बार कुछ परवंचक लोगों को विश्वास में लेकर, हाथ की सफाई या जादू के खेल के चमत्कार से चमत्कृत कर ठग लेते हैं, ऐसे ठग, वंचक या धूर्त लोगों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जो लोग अन्धविश्वास फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं, ऐसे लोगों के चक्कर में नहीं आना चाहिए, और न ही अन्धविश्वास का शिकार बनना चाहिए। एक बात और, अन्धविश्वास और मिथ्याविश्वास के अतिरिक्त एक होता है अविश्वास । जिसे लोक व्यवहार में बहम कहते हैं। उसका शिकार भी नहीं बनना चाहिए। कई लोग बात-बात में बहम करते हैं, वे जिस मकान में बैठते हैं, उसके विषय में भी बहम करते हैं कि कहीं यह गिर न पड़े। जिस मोटर या रेलगाड़ी में बैठते हैं, उसके विषय में बहम करते हैं कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाय, कहीं यह गाड़ी खड्डे में न गिर पड़े। ऐसे बहमी व्यक्ति परिवार के प्रत्येक सदस्य पर शंका करते रहते हैं । वह किसी पर भी विश्वास नहीं करते । कहते हैं-औरंगजेब ऐसा ही था। वह एक ओर कट्टर धर्मान्ध व्यक्ति था, दूसरी और वह इतना अविश्वासी था कि अपने परिवार के किसी भी व्यक्ति पर-यहाँ तक कि अपने पुत्रपुत्री, भाइयों, बेगमों या पिता पर भी विश्वास नहीं करता था। इस प्रकार का अविश्वास भी जीवन में उपादेय नहीं हो सकता। भगवद्गीता में इसी का परिणाम बताते हुए कहा है--संशयात्मा विनश्यति'...--जो बात-बात में संशय करता रहता है, वह नैतिक जीवन से विनष्ट हो जाता है। हितोपदेश में ऐसे बहम का निराकरण करते हुए कहा है-- शंकाभिः सर्वमाकान्तमन्नं पानं च भूतले। प्रवृत्तिः कुत्र कर्तव्या, जीवितव्यं कथं नु वा ॥ "इस पृथ्वी पर अन्न-पान आदि समस्त वस्तुएं शंकाओं से आक्रान्त हैं । अतः यदि हम पद-पद पर शंका (बहम- अविश्वास) करने लगे तो कहाँ और कैसे प्रवृत्ति करेंगे और कैसे जीएँगे?" कुछ नीतिकार अपने अनुभव के आधार एक श्लोक द्वारा मुख्यतः अविश्वसनीय वस्तुओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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