SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सफलता का मूलमंत्र : विश्वास | २१ न्यायप्रिय, विश्वसनीय, निर्भय, विश्वबन्धु, विश्वमित्र एवं गौरववान् बनाता है। जो सद्धर्म व्यक्ति के इस लोक और परलोक को सुधारकर सुखों से परिपूर्ण बनाता है । जिस सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप अथवा श्रुत-चारित्ररूप धर्म की कृपा से मनुष्य वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तथा समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अथवा अर्हन्त तीर्थंकर बन जाता है । अथवा जिस ग्राम-नगर-राष्ट्रादि धर्म का पालन करने से व्यक्ति और समाज का जीवन सुखी, सुव्यवस्थित एवं समृद्ध बन जाता है, उसी परमविश्वसनीय एवं श्रद्धय धर्म पर घोर अविश्वास । धर्म जैसे परम विश्वसनीय तत्त्व पर विश्वास करने से अर्जुनमाली जैसे मानव-हत्यारे पापात्मा संसार सागर से तिर गये, धर्मात्मा बनकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर चुके, चण्डकौशिक जैसे प्रचण्ड क्रोधी सर्प जैसे प्राणी भी क्षमाशील बनकर स्वर्गसुखों को प्राप्त कर चुके । अनेक भव्यजीव, धर्मात्मा, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकावर्ग, सद्गृहस्थ एवं सन्नारियाँ सद्धर्म और सद्धर्मोपदेशक वीतरागदेव के वचनों पर विश्वास रखकर तदनुसार चल कर अपना आत्मकल्याण कर चुके । उसी विश्वसनीय श्रद्धय सद्धर्म के प्रति लोग अविश्वासपूर्वक कहने लगते हैं-धर्म के नियम बड़े कठोर हैं। हमारा विश्वास नहीं है कि शरीर को कष्ट में डालने से धर्म हो जाएगा। धर्म हमारा खाना-पीना बन्द करता है। वह हमारी सुख-सुविधा और स्वतन्त्रता को छीन लेता है। हमारे सुखमय जीवन पर प्रतिबन्ध लगाता है। हमारे ऐश-आराम में विघ्न डालता है, इसलिए न तो धर्म पर हमें विश्वास है, और न ही हम उस धर्म के अनुसार चलते हैं। जिस धर्म के लिए नीतिकार चाणक्य कहता है--- 'सुखस्य मूलं धर्मः' धर्म सुख का मुल है; वीतराग तीर्थंकर महावीर कहते हैं--'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ-धर्म उत्कृष्ट मंगल है, जैनाचार्य समन्तभद्र कहते हैं-'यो धरत्युत्तमे सुखे'-धर्म वह है, जो जीव को उत्तम सुख में धरता-रख देता है। वैशेषिकदर्शनकार कहते हैं-यतोऽभ्युदय निःश्रेयस-सिद्धिः स धर्मः । -- जिससे अभ्युदय (इहलौकिक जीवन की उन्नति) और निःश्रेयस् (मोक्ष) की सिद्धि-प्राप्ति हो, वह धर्म है। उस धर्म के प्रति अविश्वास लाकर उसे अपने सुख का लूटने वाला, आनन्द में विघ्न डालने वाला तत्त्व कहें, यह कितना घोर अज्ञान है । उस कल्याणकारी धर्म के प्रति इतना भ्रम ! वकालत एवं. राजनीति में जिस सत्यधर्म का आंशिक पालन करके महात्मा गाँधी ने अपने मुवक्किल को भारी दण्ड से मुक्त करवा दिया, ब्रिटिश सत्ताधारियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy