SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ | सद्धा परम दुल्लहा मिलती, फिर कब मिलेगी? श्रेयपथ पर चलने की यह उपेक्षा परलोकविदाई के समय कितनी कष्टकारक और पश्चात्तापदायक होगी? फिर यह बात भी विचारणीय है कि व्यस्त मनुष्य भी अपने स्वजनों की जीवनरक्षा में बहुत समय लगाने में कठिनाई महसूस नहीं करता; क्योंकि उसे वह उपयोगी और आवश्यक समझता है। यदि स्त्री या बच्चा बीमार हो तो व्यस्तता के अगणित कार्यों या लाभ के कितने ही कार्यों को पीछे के लिए छोडकर सर्वप्रथम उनकी चिकित्सा तथा परिचर्या में समय लगाता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में यह कार्य महत्त्वपूर्ण या आवश्यक है। प्रेयार्थी की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कार्य सदा प्राथमिकता प्राप्त करते हैं, उनके लिए तुरन्त समय निकाला जाता है। समय का अभाव आमतौर पर उन्हीं आत्मश्रेयस्कर कर्मों के लिए रहता है, जिन्हें वे महत्त्वहीन, अनुपयोगी और बेकार समझते हैं । निष्कर्ष यह है कि आत्मकल्याण के लिए फुरसत नहीं मिलती, इसका अर्थ इतना ही है कि इस श्रेयस्कर कार्य को सबसे व्यर्थ, सबसे कम उपयोगी और उपेक्षणीय माना जाता है । अतः फुरसत न मिलने का कथन सहज एक बहाना है । उचित आवश्यकताओं की पूर्ति भी कठिन नहीं __ अब रहा शरीर की उचित आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रश्न । वस्तुतः शरोर की उचित आवश्यकताएँ बहुत आसानी से पूरी हो सकती हैं, बशर्त कि वासनाओं, तृष्णाओं और महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाए। वासनाओं और तृष्णाओं पर यदि स्वेच्छा से अंकुश लगा दिया जाये तो मन-मस्तिष्क को काफी अवकाश आत्मचिन्तन के लिए मिल सकता है। वासनाओं और तृष्णाओं की महत्त्वाकांक्षाएँ ही प्रेयार्थी मनुष्य का सारा समय, सारी मन-मस्तिष्कीय शक्ति और ओज को जोंकों की तरह चूसती रहती है। यदि इन जोंकों से छुटकारा प्राप्त किया जा सके तो हर आदमी के पास आत्मकल्याण के लिए कुछ सोचने और करने को बड़ी मात्रा में समय बच सकता है । पेट भरने को रोटी, तन ढकने को कपड़ा तथा आश्रित परिवार के उचित पोषण की सीमा तक जिसकी महत्त्वाकांक्षाएँ सीमित हो जाएँ तो कोई कारण नहीं कि उसे परमार्थ एवं आत्मश्रेय के लिए पर्याप्त समय न मिले । जो व्यक्ति तन-मन की भौतिक एवं कृत्रिम आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सारा समय न लगाकर उसमें कटौती और संयम करता है, वह इस सुरदुर्लभ मानव-शरीर का सदुपयोग करके स्वयं ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy