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श्रेय का पथ ही श्रेयस्कर | ११
मानव-जीवन का द्विविध उपयोग मानव-जीवन के दो ही उपयोग हो सकते हैं । एक जीवन ऐसा है, जो तृष्णाओं और वासनाओं के जंजाल में जकड़ा हुआ, उसी में व्यस्त है, जिसमें न तो आत्मकल्याण की साधना के लिए अवकाश मिलता है, न ही वैसी इच्छा जागती है । दूसरा वह है, जिसमें सीमित आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के साथ संतोषपूर्वक जीते हुए तथा कर्मयोगी की तरह संसार के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को शान्तिपूर्वक विवेक से निभाते हए, परमार्थ का भी सम्पादन किया जाता है। निश्चय ही दूसरा जीवनक्रम अधिक दूरदर्शितापूर्ण, श्रेयःसाधक एवं लाभदायक है । परन्तु खेद है कि आज अधिकांश लोग श्रेय की बातें भले ही करते हों, परन्तु जीवनक्रम प्रेय को ही अपनाये हुए हैं, जिसमें अशांति, बेचैनी, बर्बादी और पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ भी मिलता नहीं है। प्रेयार्थी लोग उसी सुखाभास को सुख समझकर अपनाये हुए हैं।
तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनों प्रकार के जीवनक्रमों पर विचार करने पर सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट प्रतीत होगा कि लाखों-करोड़ों वर्षों बाद मिले हए करोडों रुपयों से भी अधिक मूल्यवान इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन को श्रेयमार्ग में लगाकर सदुपयोग किया जाना चाहिये, न कि इन्द्रियविषयभोगों, कामादि विकारों या मानसिक तृष्णाओं के चक्कर में फंसाकर इसे प्रेयमार्ग में बर्बाद किया जाय ।
फुरसत का अभाव भी बहाना है प्रेयार्थियों द्वारा श्रेय कर्मों के लिए फुरसत न मिलने का कथन भी बहाना ही है । गम्भीरता से सोचने पर इसकी सत्यता समझ में आ जाएगी। यह सत्य है कि जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक है । भरी जवानी में उठती उम्र के नौजवानों की लाशें रोज ही आँखों के सामने गुजरती हैं। फूल-से कोमल बच्चे देखते ही देखते मुझ जाते हैं, फिर किसी के बारे में क्या निश्चय है कि उसे सौ वर्ष तक जीने का अवसर मिलेगा ही। अगर आज ही जीवन समाप्त हो जाये, मौत सामने आ खड़ी हो तो फिर ये समस्याएँ, आकांक्षाएँ, चिन्ताएँ, तृष्णाएँ या वासनाएँ किस प्रकार पूर्ण होंगी, जो आज प्रेयार्थियों को परेशान करती हैं ? सोचने की बात है कि यदि वह दुखद घड़ी कल ही उपस्थित हो जाए तो जिन व्यस्तताओं में से घड़ी भर भी आत्मचिन्तन, आत्मकल्याण या परमार्थ के लिए फुरसत नहीं
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