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________________ १० । सद्भा परम दुल्लहा घंटे उसे सजाने-संवारने, उसे चमकाने और उसे पर पॉलिश करते रहने में नहीं लगा रहता । उसे अपनी मंजिल का भी ध्यान रखना होता है, जिसके लिए उसने नौका खरीदी है, इसी प्रकार शरीर के मालिक आत्मा (जीव) को भी चाहिए कि वह शरीर की यथोचित संभाल रखे, किन्तु चौबीसों घंटे उसे सजाने-संवारने, उसे नहलाने-धुलाने, खिलाने-पिलाने और ऐशआराम करने में ही वह न लगाए। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति 'यह शरीर संसार-सागर को पार कराने के लिए मिला है ; इससे संसार-सागर को पार करना है, इस उद्देश्य को भूल कर चौबीसों घंटे शरीर को ही सजाने-संवारने आदि में लगा रहे, शरीर के अन्तर्गत इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि को भी उनकी वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति में अहर्निश लगा रहे, तो क्या वह बुद्धिमान समझा जाएगा? आगम की भाषा में वह 'बहिरात्मा' है, अन्तरात्मा नहीं।' आगम की आध्यात्मिक भाषा में संसार को सागर इसलिए कहा गया है कि सागर अथाह एवं अनन्त होता है, उसी प्रकार विविध गतियों में परिभ्रमणरूप या जन्म-मरणरूप संसार भी अनन्त है, क्षेत्र एवं काल दोनों दृष्टियों से । दूसरे, जैसे समुद्र मगरमच्छों, घड़ियालों तथा अन्य अनेक हिंस्र जलजन्तुओं से भरा रहता है, जो दाव लगते ही अपने शिकार को निगल जाते हैं, वैसे ही संसार-सागर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्व ष, विषयवासना, मानसिक तृष्णाओं एवं मोह, मद, मत्सर, ममता-मूर्छा इत्यादि विकारों से भरा पड़ा है, ये भी भोले-भाले संसारी जीव को प्रलोभन देकर फँसा लेते हैं । जैसे--समुद्र को सही-सलामत पार करने के लिए मनुष्य को समुद्री जलजन्तुओं से बहत ही सतर्क और बाहोश रहना पड़ता है, अगर जरा-सा भी असावधान रहे तो उसे हिंस्र जलजन्तु निगल सकते हैं, इसी प्रकार संसार-सागर में भी श्रेयार्थी साधक को बहुत सावधान रहना पड़ता है, जरा-सी असावधानी उसके लिए प्राणघातक बन सकती है। संसार-सागर को पार करने के लिए मिली हुई शरीररूपी नौका भी कहीं इन्द्रियों और मन की विषय-वासनाओं या तृष्णाओं के चक्कर में पड़कर डुबो न दे, इसकी भी पूरी सावधानी रखता है । परन्तु खेद है कि वर्तमान में अधिकांश मनुष्यों को मिली हुई देवदुर्लभ मानवदेहरूपी नौका का उद्देश्य भुलाकर संसार-सागर के विषय-कषायादि विकारों के भंवरजाल में ही फंसाकर इसे डुबा रहे हैं। ऐसे असावधान, लापरवाह, प्रेयार्थी नाविक आत्मा को एवं उसके कल्याण को महत्त्व न देकर शरीररूपी नाव को सजाने-सँवारने और इसे ही चमकाने-दमकाने में लगे हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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