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श्रेय का पथ ही श्रेयस्कर |
गोरखधन्धे में उलझे रहना क्या बुद्धिमानी समझी जाएगी ? इसके बदले श्रेयार्थी बनकर यदि समुचित श्रम, समय और मन-मस्तिष्क को जीवनयात्रा के लिए आवश्यक एवं उचित साधन जुटाने में लगाया जाए और बचे हुए समय और पुरुषार्थ को आत्मकल्याण एवं परमार्थ में लगाया जाए तो उभयलोक में चिरकाल तक जीवन का आनन्द प्राप्त होता । साथ ही उक्त अगणित समस्याओं और चिन्ताओं से भी छुटकारा मिलता, तथा इस धरती पर जीने वाले असंख्य प्राणियों को उसके शान्तिमय जीवन से लाभ मिलता । इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने कहा है
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥
भावार्थ यह है कि 'मनुष्य श्रवण-मनन करके कल्याण ( श्रेय ) और पाप (प्रेय) को जानता है । अतः श्रेय और प्रेय दोनों को जानकर जो श्रेय (कल्याणकर) है, उसका आचरण करे ।'
किसको महत्त्व दें ? : शरीर को या आत्मा को ?
प्रश्न होता है - शरीर को महत्त्व दें या आत्मा को ? शरीर को महत्त्व देने वाले प्रेयार्थी जीवन का वास्तविक स्वरूप न समझने के कारण पूर्वोक्त नाना परेशानियों और समस्याओं में उलझते एवं बेचैन होते रहते हैं जबकि यार्थी आत्मा को महत्व देते हैं, वे शरीर को एक औजार या साधन समझ कर उसी प्रकार से उसका उपयोग करते हैं, जिससे वह आत्मसाधना करने के लिए सक्षम, सशक्त और उपयोगी बना रहे, वह उसमें बाधक न हो । श्रयार्थी यह समझता है कि मूल में तो भवभ्रमण के कारणों से आत्मा की रक्षा के लिए मानव शरीर मिला है। वह एक प्रकार का वाहन है, जिसका उद्देश्य आत्मा को भवसागर से पार कराना है । ' कहा है
उत्तराध्ययन सूत्र
में
जंतरंति महेसिणो ॥
सरीरमाहु नावित्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वत्तो, शरीर को नौका और जीव को नाविक कहा गया है, संसार को सागर कहा गया है, जिसे मनस्वी महर्षि पार कर लेते हैं ।
शरीर एक नौका है। इसका मालिक ( नाविक ) अपने इस वाहन की आवश्यक देखभाल एवं सुरक्षा व्यवस्था तो करता है क्योंकि टूटी-फूटी और जर्जर नौका होगी तो वह पानी पर तैरने के बजाय डूबने लगेगी, नाविक को भी अतल समुद्र में डुबा देगी। किन्तु नौका का मालिक चौबीसों
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