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________________ ८ | सद्धा परम दुल्लहा लाख और लाख से करोड़ की ओर दौड़ लगाता है । परन्तु मान लो इतना प्राप्त हो जाए तब भी उसे सुख-शांति की नदी मृगतृष्णा की तरह सूखी ही मिलती है । प्रचुर धनप्राप्ति के साथ ही अपार समस्याएँ उसके सामने मुँह बाए खड़ी रहती हैं, इन्कमटेक्स, सेल्सटेक्स, वेल्थटेक्स की, चोर-डाकु आदि से, आग से एवं अन्य दुर्घटनाओं से धन की रक्षा की समस्याएँ, फिर लड़कों में बँटवारे की समस्या, रात-दिन चिन्ता ही चिन्ताएँ उसके प्राण चूस लेती हैं । वह आत्मकल्याण की बात सोच ही नहीं पाता । उसे प्रारम्भ में धन कमाना, जोड़ना और अपने सुख भोग-विलास में उड़ाना - फूँकना प्रिय, सुखकर एवं स्वाभाविक लगता है किन्तु बाद में जव उपर्युक्त समस्याएँ सामने आती हैं, तो निरंतर बेचैनी बनी रहती है । बेचैनी मिटाने के लिए तिकड़मबाजी एवं जालसाजी करने पर भी हरदम चिन्ता लगी रहती है । फिर उसका जंजाल इतना बढ़ जाता है कि उसे खाने-पीने, सोने, पत्नीबच्चों से बात करने, बच्चों को शिक्षण संस्कार देने की भी फुरसत नहीं मिलती। प्रसिद्धि, वाहवाही और नामबरी की तृष्णा भी इतनी भयंकर है कि वह आदमी को ऐसे उड़ाये फिरती है, जैसे- आंधी के झोंके पत्तों को उड़ाये फिरते हैं । विवाह-शादियों में लोग पैसे को पानी की तरह बहाते हैं, इसमें प्रतिष्ठा और बड़प्पन की तृष्णा काम करती है । फैशन और ठाठ-बाट पर लोग प्रचुर मात्रा में खुलकर खर्च करते हैं, वह भी वाहवाही की तृष्णा का परिणाम है। चुनावों में खड़े उम्मीदवार प्रायः इसी तृष्णा के शिकार होते हैं । इस प्रकार की अगणित तृष्णाएँ प्रेयार्थी मनुष्य की अदूरदर्शिता के कारण उसके चारों ओर मंडराती रहती हैं । उन तृष्णाओं की पूर्ति के लिए इतने विशाल ताने-बाने बुनने पड़ते हैं कि जाले में फँसी हुई मकड़ी की तरह अपने ही द्वारा गूंथे जाल में प्रेयार्थी फँसा रहता जब उन्हें श्रेयार्थी बनकर आत्मचिन्तन, आत्म-कल्याण एवं परमार्थ के लिए कहते हैं तो वे यही वाक्य बार-बार दुहराते हैं क्या करें, समय ही नहीं मिलता । प्रयार्थी यह सोचे यदि शरीर और इन्द्रियविषयों की अमिट वासनाओं और मन की अगणित तृष्णाओं को स्वल्पमात्र में एक लघु क्षण के लिए तृप्त करने में सारा जीवन खपा दिया जाए, फिर भी अग्नि में घी डालते रहने पर न नने वाली ज्वाला की तरह प्रेयार्थी के अशान्ति ही पल्ले पड़ी तो इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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