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गणधर गौतम के अन्तर्ह दय में शंका समुत्पन्न होती थी, पर उस शंका के पीछे आस्था की अविचल भूमिका थी, श्रद्धा का दिव्य आलोक जगमगाता था। जब शंका का समाधान हो जाता तो उनके अन्तर्ह दय से अनायास ही यह स्वर लहरियां फूट पड़ती थीं
सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय पडिच्छिय मेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वयह ।
-उपासक अ० १ सू० १२ अर्थात-भगवन ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हैं। भगवन ! मैं निम्रन्थ प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ। भगवन ! मैं निर्ग्रन्थ प्रव
न पर रुचि करता हूँ। भगवन ! निर्ग्रन्थ प्रवचन तथ्य है, अवितथ्य है; मुझे इष्ट है, अभीष्ट है, इष्टाभीष्ट है, जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है ।
ये हैं सच्चे साधक के हृदय के निर्मल उद्गार । उनमें कितनी गहरी श्रद्वा है, उनकी शंकाए विषय को विशद् और स्पष्ट करने के लिए होती थी। गणधर गौतम यदि शंका और प्रश्न न करते तो आज हमारे सामने जो विराट आगम साहित्य है, वह हमें प्राप्त नहीं होता। पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में श्रमण भगवान महावीर ने श्रद्धा को परम दुर्लभ कहा है। आज का मानव श्रद्धा को भुलाकर प्रत्येक कार्य में तर्क करने लगा है और वह सोचता है कि तर्क से ही सत्यान्वेषण होगा, पर उसका यह सोचना भ्रान्तिपूर्ण है। यदि श्रद्धा का सम्बल लेकर तर्क करता है तो वह तर्क सही मार्ग को समझने में उपयोगी है।
समय-समय पर मैंने निबन्ध लिखे हैं, उन निबन्धों में से कुछ निबंध जो श्रद्धा से सम्बन्धित हैं, उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया जा रहा है। यह सत्य है कि पूर्व ग्रन्थ लेखन की दृष्टि से ये निबन्ध नहीं लिखे गये थे। यदि पूर्व ग्रन्थ की परिकल्पना को लेकर ग्रन्थ का निर्माण होता तो ग्रन्थ का रूप कुछ दूसरा ही होता, तथापि मैं समझता हूँ कि यह निबन्ध-संग्रह श्रद्धा के महत्व को समझाने में परम उपयोगी सिद्ध होगा। यदि प्रबुद्ध पाठकों के
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